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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [115] समीक्षण भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि अध्यात्मवाद पर अवलम्बित है। प्रायः सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में जीव की मक्त अवस्था को स्वीकार किया है। जीव के मुक्त होने में सबसे मुख्य उपाय ज्ञान है। जीव साकार (ज्ञान) उपयोग में ही मोक्ष को प्राप्त करता है। ज्ञान सहित क्रिया (चारित्र) से जीव अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। भगवती सूत्र (शतक 2, उद्देशक 5) में ज्ञान का फल विज्ञान, विज्ञान का फल प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान का संयम, इसी प्रकार अनास्रव, तप, निर्जरा, अक्रिया एवं अंतिम फल मोक्ष बताया है। जैन दार्शनिकों ने ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण माना है। ज्ञान और आत्मा का एक दूसरे की अपेक्षा से अस्तित्व सिद्ध है। यदि आत्मा से ज्ञान नष्ट हो जाए तो वह अजीववत् हो जाएगी एवं ज्ञान भी बिना आत्मा के नहीं रह सकता है। अतः ज्ञान आत्मा से कभी अलग नहीं होता है। बल्कि ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। आत्मा नरक-निगोद अथवा मोक्ष किसी भी अवस्था में रहे उसमें ज्ञान की सत्ता अवश्य रहती है। भगवती सूत्र में भी ज्ञान को इहभविक, परभविक और तदुभय भविक बताया है। सम्यग्ज्ञान आत्मा के उत्थान में सहायक बनता है। ज्ञान ही विरक्ति (चारित्र) या मोक्ष का मातृ स्थान है। किसी भी वस्तु को जानना ज्ञान कहलाता है। ज्ञान कर्ता, करण एवं कार्य तीनों है। जिस प्रकार दीपक स्वयं को जानता है, वैसे ही ज्ञान स्व-पर को जानता है। पर-संवेदन में 'यह पट है' तथा स्व-संवेदन में 'मैं इस पट को जान रहा हूँ' ये दोनों प्रत्येक ज्ञान के आवश्यक पक्ष हैं तथा अस्तित्व की दृष्टि से परस्पर सापेक्ष हैं। इनमें से एक का निषेध करने पर दूसरे का कथन भी संभव नहीं है। ज्ञान स्व-पर का प्रकाशक तततहोता है। ज्ञान से जिसे जाना जाता है, वह ज्ञान का ज्ञेय कहलाता है। जैनदर्शन के अनुसार न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञेय ज्ञान से। हमारा ज्ञान ज्ञेय को जानता है, ज्ञेय से उत्पन्न नहीं होता है। ज्ञान आत्मा में गुण स्वरूप से सदा अवस्थित रहता है और पर्याय रूप से प्रतिसमय परिवर्तित होता रहता है। ज्ञान और ज्ञेय में विषय और विषयी भाव का सम्बन्ध घटित होता है। ज्ञान को आवरित करने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। जिस प्रकार आँख पर कपड़े की पट्टी लपेटने से वस्तुओं के देखने में रुकावट हो जाती है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव से आत्मा को पदार्थों का ज्ञान करने में रुकावट पड़ जाती है। पं. कन्हैयालाल लोढ़ा ज्ञानावरण कर्म में मोहनीय कर्म को कारण मानते हैं। उपयोग जीव का असाधारण लक्षण है। असाधारण लक्षण वह होता है जो उसके अलावा अन्य में नहीं पाया जाता हो। उपयोग दो प्रकार का होता है - साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन)। आत्मा का बोध रूप व्यापार जो वस्तु के सामान्य धर्म को गौण करके मुख्य रूप से वस्तु के विशेष धर्म को जानता है, वह साकार (ज्ञान) उपयोग है तथा आत्मा का वह बोधरूप व्यापार जो वस्तु के विशेष धर्म को गौण करके वस्तु के सामान्य धर्म को मुख्य रूप से जानता है, वह अनाकार (दर्शन) उपयोग है। पं. कन्हैयालाल लोढ़ा के अनुसार जहाँ सामान्य ग्रहण दर्शन कहा है वहाँ सामान्य शब्द का प्रयोग अविशेष अनुभूति के लिए हुआ है, जिसका दूसरा नाम संवेदन है।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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