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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [81] 4. नैयायिकों का कहना है कि चक्षु संसार के अतिदूर और व्यवधान वाले अर्थों को नहीं देख सकता है। मलयगिरि उत्तर में कहते हैं कि अप्राप्यकारी मन भी लोक के नियत विषयों को ही ग्रहण कर सकता है, वैसे ही चक्षु भी नियत विषयों को ही ग्रहण करता है, क्योंकि लोहचुम्बक भी योग्य दिशा में रहे हुए लोहकणों को ही आकर्षित करता है / 23 5. नैयायिक कहते हैं कि चक्षु इन्द्रिय भौतिक है। मलयगिरि कहते हैं कि लोह चुम्बक भी भौतिक है और अप्राप्यकारी है।24 पांच इन्द्रियों का विषय और उनका विषय क्षेत्र मतिज्ञान का सम्बन्ध इन्द्रिय से है। अत: जिनभद्रगणि ने प्रसंगानुसार ही पांच इन्द्रियों द्वारा प्राप्त-अप्राप्त विषय की चर्चा करते हुए उनके विषय के प्रमाण का उल्लेख किया है। श्रोत्रेन्द्रियादि पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का ग्रहण करती हैं, लेकिन अपने-अपने विषय को भी भिन्न-भिन्न प्रकार से ग्रहण करती हैं। इन्द्रियां मतिज्ञान में सहायक होती हैं। इनका विषय मतिज्ञान रूप होता है। पुढे सुणेइ सइं, रूवं पुण पासइ अपुढे तु। गंधं रसं च फासं च, बद्धपद्रं वियागरे॥125 अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय, शब्द को मात्र स्पर्श होने पर सुनती है, चक्षुरिन्द्रिय रूप को बिना स्पर्श हुए ही देखती है तथा घ्राणेन्द्रिय गन्ध को, रसनेन्द्रिय रस को और स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्श को, स्पृष्ट और बँधने पर ही जानती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विषय ग्रहण की अपेक्षा इन्द्रियां तीन प्रकार की होती हैं - 1. स्पृष्ट विषय को ग्रहण करने वाली - श्रोत्रेन्द्रिय। 2. बद्धस्पृष्ट विषय का ग्रहण करने वाली - स्पर्श, रस और घ्राण और 3. अस्पृष्ट विषय करने वाली - चक्षुरिन्द्रिय। यह वर्गीकरण विषय की पटुता के आधार पर किया गया है। स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय ये तीन पटु, श्रोत्रेन्द्रिय पटुतर और चक्षुरिन्द्रिय पटुतम होती है। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण स्पृष्ट और बद्ध की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि शरीर पर रज कण के स्पर्श की भांति शब्द आदि का जो स्पर्शमात्र होता है, वह स्पृष्ट है। आत्मप्रदेशों के साथ गाढतर आश्लेष (सम्बद्ध) होना बद्ध कहलाता है।126 स्पृष्ट पुद्गल एकमेक कैसे होते हैं - हरिभद्र के अनुसार शीत उष्णता के पुद्गल निकलकर स्पर्शेन्द्रिय में एकमेक होने पर ही उनका ज्ञान होता है। बद्ध का उदाहरण देते हुए कहा है कि पहले जल का शरीर से स्पर्श होता है, फिर वह आत्मीकृत होता है। 27 श्रोग्रेन्द्रिय की पटुता श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्द द्रव्य को ग्रहण करती है, अतः घ्राण आदि इन्द्रियों की अपेक्षा श्रोत्रेन्द्रिय पटुतर है। इसके विषयभूत शब्द द्रव्य अन्य विषयों की अपेक्षा मात्रा में प्रभूत, सूक्ष्म तथा भावुक (वासित करने वाला) हैं। इस प्रकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्पृष्ट मात्र के ग्रहण के तीन हेतु बताये हैं - बहु, सूक्ष्म और भावुक। शब्द के परमाणु स्कंध बहुत द्रव्य वाले, सूक्ष्म और भावुक होते हैं तथा उत्तरोत्तर शब्द के परमाणु स्कंधों को वासित करने वाले होते हैं। इसलिए इनका ज्ञान स्पर्श मात्र से हो जाता है। जैसे नये शकोरे पर जल-बिन्दु का स्पर्श मात्र होने से, शकोरा उस जल बिंदु 123. मलयगिरि पृ. 170 124. मलयगिरि पृ. 171 125. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 336 126. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 337 127. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. 68-69
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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