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________________ (३४) लग्नस्वनिधिभाग्येशेऽभ्युदयात् पञ्चतुर्यके । तत्कालं यः पुमान् जातः स च कोटीश्वरो भवेत् ॥१६५।। सर्वग्रह: परे दृष्टेऽभ्युदयत्येव लगपे । स्वोचमित्रस्थगेहे वा जातो भवति भूमिपः ॥१६५॥ केन्द्रगतैः सर्वग्रहरुदयत्येव लमपे । मूर्ति पश्यति लग्नेशे चक्रवर्ती नरस्तु सः ॥१६७॥ भाग्यपेऽभ्यन्तरे राशौ गते जन्म यदा भवेत् । लप्रपे च विशेषेण यावजीवं समृद्धिमान् ।।१६८।। त्रिमिश्छवं महाच्छत्रं पञ्चमिश्थातिच्छत्रकम् । सप्तभिस्तुर्यपत्यन्तं ग्रहैश्छत्रादिनिर्णयः ॥१६९॥ लप्राधारो भवेञ्जीवः शरीरं चन्द्रमाः पुनः । तेजस्तेजोनिधिः प्रोक्तः शाखाः स्युस्त्वितरे ग्रहाः ॥१७०॥ . लग्नेश, धनेश, चतुर्थेश और भाग्येश यदि लग्न से पश्चम वा चतुर्थ स्थान में हों तो उस लग्न में उत्पन्न बालक कोटीश्वर अर्थात् बड़ा धनवान होता है ॥ १६५॥ लग्नेश लग्न वा अपने उच्च अथवा मित्र स्थान में रहे और शुभ ग्रहों से देखा आय तो वह शिशु राजा होता है ।। १६६ ॥ सभी ग्रह केन्द्र में और लग्नेश लग्न में रहे वा लग्नेश लग्न को देखे तो वह मनुष्य चक्रवर्ती होता है ।। १६७ ।। भाग्येश लग्न और भाग्य स्थान के बीच किसी राशि में हो वा लग्नेश लग्न और भाग्य के बीच हो तो वह शिशु जीवनपर्यन्त समृद्धिशाली होता है ।। १६८ ॥ तीन ग्रहों से छत्र, पांच ग्रहों से महाछत्र, सात से अतिछत्रक, चार से दस तक इस प्रकार प्रहों से छत्र आदि का निर्णय समझना चाहिये।। १.६६।। गुरु शरीर का आधार, चन्द्रमा शरीर और सूर्य शरीर का तेज माने गये हैं। और मंगलादि अन्य ग्रह उसकी शाखा होती है ।। १७० ॥ 1. लमस्य for लभस्व A., लग्नेशो Bh. 2. ऽभ्युदयत्येव तर्यके for ऽभ्युदयात पनतर्यके A. 3. स्वगृहे for स्वगेहे A. 4. पञ्चभिरति for पाभिश्वाति A.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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