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________________ ( १२ ) उबांशस्थे ग्रहे पूर्ण पादोन स्वत्रिकोणगे। अर्द स्वरूधिमित्रा चतुर्विशति लिप्तकम् ।।५२।। पादोनं मित्रमे शेयं समझे तु कलाष्टकम् । चतसः शत्रुभे लिप्ता द्वे लिप्ते अधिशत्रुमे ।।५३॥ स्वादिपु ग्रहैः प्रोक्तं यत्तद्वर्गेषु तद्वलम् । तदीशमादिर्भः खेटमूलपादोनराशिकः ॥५४॥ शुक्रेन्द समराश्यंशे शेषा न्यस्तबलाधिकाः । रूपादं पादवीर्याः स्युः केन्द्रादिस्थानमाश्वराः ॥५५॥ इति स्थानबलम् । प्रहों के अपने उच्च अंश में होने पर पूर्ण बल होता है। अपने त्रिकोण में (अर्थात अपने से नवम और पञ्चम में ) चतुर्थांश बल कम हो आता है। अपने राशि में प्राधा और अधिमित्र के गृह में चौवीस, कलात्मक बल रह जाता है ।।५२।। मित्र के घर में रहने से ग्रहों का बल चतुर्थाश कम हो जाता है। बराबर के घर में रहने से आठ कला बल होता हे । शत्रु के घर में चार कला और अधिशत्रु के घर में दो कला समझना चाहिये ॥५३॥ अपनी अपनी राशि आदि में स्थित ग्रहों द्वारा उन उन वर्गों में उनका बल समझना चाहिये । ग्रहों का राशिस्थ बल ग्रहस्वामी के मूल बल से एक पाद कम होता है ॥५४॥ शुक और चन्द्रमा सम राशि के अंश में बलवान होते हैं। शेष ग्रहों में स्थान के अनुसार अधिक, आधा तथा पाद अर्थात् चौथाई बल होता है। केन्द्रादि स्थानों के ग्रह चर होते हैं अर्थात् उनका बल घटता बढ़ता रहता है ॥५॥ 1. समय for समझें Amb. 2. For this verse B. . reads : स्वादिग्रहणे प्रोक्तं यत् षडवगेंषु तद् बलम् । तदंशावादिंगे: सेभलपादोनगदिक : ।। Bh differs from B. in the fourth nada as it reads :-मूलं पादोत्तरादिकः for मूलपादोन रादिक।
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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