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________________ ( ११६ ) तदा कार्मणजो दोष एक करो यदाष्टमे। ग्रहद्वयं त्रयं वाच्यं तदाकाशपतिर्भवेत् ॥६३७॥ यदा चतुर्दा केन्द्रंषु क्र रमहा भवन्ति चेत् । तदा दोषः सदा वाच्यो यावजीवं हि जन्मनाम् ॥६३८॥ उचगेहे भवेदुच्चो नीचे नीचस्तु पीडकः । निजक्षेत्रे बली वाच्यः शधुगेहेऽबलः पुनः ॥६३९।। पादो दोषो भवेत्केन्द्र त्रिकोणेशद्वयं मतम् । छिद्रेशत्रितयं दोषो विंशत्यंशा व्यये पुनः ॥६४०॥ अस्तंगतोऽथवा नीचो ग्रहो दोषकरो यदि । तदा दोषफलं नास्ति दोषपृच्छा सुनिश्चितम् ॥६४१॥ अथ प्रकारान्तरमाहअष्टमे द्वादशे सूर्य दोषः स्यात्क्षेत्रपालजः । "यक्षोद्भवस्तथा सोरे गोत्रजायाश्च निर्दिशेत् ।।६४२॥ एक भी पापग्रह यदि अष्टम में हो तो कर्मसम्बन्धी दोष कहना चाहिये, यदि दो या तीन मह हों तो आकाशजन्य उपद्रव होता है।।६३७।। जिसको जन्मकाल में चारों केन्द्रों में पापग्रह हों तो उसको यावज्जीवन दोष कहना चाहिये ।।६३॥ ___उम्र में हों तो अच्छा ही होता है, और नीच मे हों तो पीड़ा करने वाले होते हैं, अपने घर में ग्रह बलवान होते है, और शत्रु के घर में निर्बल होते है ॥६३६॥ • केन्द्र में चतुर्थांश दोष होता है और त्रिकोण में दो माग दोष होता है, अष्टम में तीन अंश दोष होता है और व्यय भाव वीस अंश दोष होता है ।।६४०॥ दोष प्रश्न में अस्त मे गत ग्रह या नीच स्थित प्रह दोषकारक हो तो दोष का फल निश्चय नहीं होता ॥६४१॥ . अब प्रकारान्तर से कहते है। अष्टम और द्वादश में सूर्य हो तो क्षेत्रपालकत दोष होता है, इन स्थानों में शनि हो तो यक्षकृत तथा गोत्रों से कृत दोष होता है ॥६४२॥ 1. मव: for पुन: A. 2. मानो for सूयें 3. रक्तो for वक्षो ms,
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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