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________________ - - शक्ति परम गुरु की गुरू होती, निर्झर गिरि से झरता । क्यों जागृत करती हो आज सुप्त सिंह को हे अधिराज ! किया पलायन जैसे मृग ने देख लिया हो चीता । पर अचल हिमालय अपनी बात कहेगा। हर तरू परिचित सा लगता है पग-पग पर, परिकर - सा लगता तरू तरूगामी वानर, कोयल का कलरव अनजाना - सा प्रण है, केका का कोई कोमल आमंत्रण है । मीन । सलिल सुलभ सबको नां कोई, प्यासी है पानी में बड़ा मत्स्य छोटी मछली से, कब करता है मन से प्यार । भरत! तुम्हारा कैसा जीवन, तरूवर जैसे शाखा हीन । स्थूलकाय गज किन्तु भीत मृगपति से । प्रणत सिंह रथ बोला, यह तो, चींटी पर गज का अभियान । कलभ यूथपति गजवर के पद चिन्हों पर चलता है नाथ! बंधो! उतरो, गज से उतरो, उतरो अब । ऋ. पृ. 163. ऋ. पू. - 142. ऋ. पू. - 171. ऋ. पृ. 181. उक्त उदाहरण में क्रमशः गिरि - अचलता का, झरना - गति का, सुप्त सिंह- परमानन्द का, मृग - निर्बलता अथवा सीधे-सादे मनुष्य का, चीता - हिंसा अथवा सबल का, अचल हिमालय - गिरिजनों का, तरू, वानर, कोयल, केका - मधुर साहचर्य का, मीन - संतुष्टि का बड़ा मत्स्य-शक्ति का, छोटी मछली- निर्बलता का, शाखाहीन तरूवर - खण्डित जीवन का, स्थूलकाय गज-शक्ति प्रदर्शन का, मृगपति - शौर्य का, चींटी - तुच्छ अथवा अशक्त जन का गज-श्रेष्ठता का और पुनः गज- अहंकार के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है । इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि नेएक ही उपमान को कई प्रतीकों के रूप में व्यक्त किया है । चातक की आशा है भोर ! शशधर में अनुरक्त चकोर । ऋ. पृ. 185. ऋ. पू. - 200 ऋ. पृ. 201. ऋ. पू. - 211. ऋ. पू. - 246. ऋ.पू. - 211. ऋ. पृ. 266. ऋ. पृ. 294. 'चातक' और 'चकोर' काव्य में 'उत्कट प्रेमी' के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने इनका उपयोग पारम्परिक रूप से करते हुए नवीन अर्थ प्रदान किया है : 58 ऋ. पृ. 85.
SR No.009387
Book TitleRushabhayan me Bimb Yojna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilanand Nahar
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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