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________________ 78 दृष्टि का विषय सम्यग्दृष्टि को भोग बन्ध का कारण नहीं आगे, चौथे और पाँचवें गुणस्थानयुक्त जीव भोग भोगता है तो क्यों भोगता है और उसमें उसे बन्ध नहीं, वह किस अपेक्षा से कहा जाता है, उसका स्पष्टीकरण करते हैं और कहते हैं कि इन्द्रियजन्य सुख, वह वास्तव में तो दुःख ही है। गाथा २३९ अन्वयार्थ-‘क्योंकि सुख जैसे ज्ञात होनेवाले ये इन्द्रियजन्यसुख, दुःखरूप फल को देनेवाले होने से दुःखरूप ही है। इस कारण से वे सुखाभास त्यागने योग्य है, तथा सर्वथा अनिष्ट उन दुःखों के जो कर्म, हेतु (निमित्त) हैं, वे भी त्यागने योग्य हैं (अर्थात् दुःखों के निमित्त जो कर्म हैं, वे भी त्यागने योग्य हैं)' जो जीव अज्ञानी हैं, उन्हें तो इन्द्रियजन्यसुखरूप सुखाभास प्रिय होने से नियम से दुःखरूप ही है क्योंकि दुःख का जो कारण है, वैसे कर्म ऐसे सुखों के प्रति आकर्षण से और ऐसे सुखों को रजपच कर भोगने से बँधते हैं कि जो कालान्तर में दुःख देनेवाले ही बनते हैं। जबकि आत्मज्ञानी ऐसे सुखों को उपेक्षा भाव से-अपनी निर्बलता समझकर भोगता है और इस कारण से उसे अल्पबन्ध होता अवश्य है परन्तु उस अल्प की अपेक्षा को नहींवत् अर्थात् बन्ध नहीं होता ऐसा ही कहा जाता है क्योंकि उसे उस सुख में 'मैंपना' नहीं होता और जैसे रोगी को दवा के लिये आदर रोग मिटे तब तक ही होता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी को भी इन्द्रियजन्य सुख का आदर अपने पुरुषार्थ की निर्बलता है, तब तक ही होता है और आत्मज्ञानी ऐसे सुख को सेवन करता हुआ भी उसे अपने पुरुषार्थ की निर्बलता समझकर पुरुषार्थ में वीर्य स्फुरित करने को अन्तर से उद्यमवन्त होता है। इसलिए इसी अपेक्षा से उन सुखों को वह भोगने पर भी, उसे बन्धकारक नहीं है ऐसा कहा जाता है। गाथा २५६ अन्वयार्थ-'जैसे जौंक को दूषित रक्त चूसने से तृष्णा के बीजभूत रति देखने में आती है, इसी प्रकार (अज्ञानी) संसारी जीवों में भी उन विषयों में सुहितपना (अच्छा मानने से, आदर होने से, आकर्षण होने से) मानने से तृष्णा के बीजभूत रति (आसक्ति) देखने में आती है।' अर्थात् विषयों की ऐसी आसक्ति छोड़ने योग्य है, यह बात अवश्य ध्यान में रखने जैसी है, क्योंकि गाथा २५८ अन्वयार्थ-'सम्पूर्ण कथन का सारांश यह है कि -यहाँ जगत जिसे सुख कहता है, वह सर्व दुःख ही है तथा वह दुःख आत्मा का धर्म नहीं होने से सम्यग्दृष्टियों को उस दुःखरूप
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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