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________________ सम्यग्दर्शन का विषय अर्थात् दृष्टि का विषय 53 सम्यग्दर्शन का विषय अर्थात् दृष्टि का विषय अब हमने देखा कि छद्मस्थ आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त कर्म वर्गणाएँ होने से वह अशुद्ध आत्मारूप से ही परिणमित होता है, तो उसमें यह शुद्धात्मा कहाँ रहता है? उसका उत्तर ऐसा है कि भेदज्ञान से (प्रज्ञाछैनी से) अर्थात् जीव और पुद्गल के बीच के भेदज्ञान से अर्थात् जीव के लक्षण से जीव को ग्रहण करना और पुद्गल के लक्षण से पुद्गल को तथा फिर उसमें प्रज्ञाछैनी से (तीव्र बुद्धि से) भेदज्ञान करने से शुद्धात्मा प्राप्त होता है। वह इस प्रकार की प्रथम तो प्रगट में आत्मा के लक्षण से अर्थात् ज्ञानरूप देखने-जानने के लक्षण से आत्मा को ग्रहण करते ही, पुद्गलमात्र के साथ भेदज्ञान हो जाता है और फिर उससे आगे बढ़ने पर जीव के जो चार भाव हैं अर्थात् उदयभाव, उपशमभाव, क्षयोपशमभाव और क्षायिकभाव ये चार भाव, कर्म की अपेक्षा से कहे हैं और कर्म पुद्गलरूप ही होते हैं; इसलिए इन चार भावों को भी पुद्गल के खाते में डालकर, प्रज्ञारूप बुद्धि से अर्थात् इन चार भावों को जीव में से गौण करते ही, जो जीवभाव शेष रहता है, उसे ही परमपारिणामिकभाव, शुद्धात्मा, कारणशुद्धपर्याय, स्वभावभाव, सहजज्ञानरूपी साम्राज्य, शुद्धचैतन्यभाव, स्वभावदर्शनोपयोग, कारणस्वभावदर्शनोपयोग, कारणस्वभावज्ञानोपयोग, कारणसमयसार, कारणपरमात्मा, नित्यशुद्धनिरंजनज्ञानस्वरूप, दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमता ऐसा चैतन्य सामान्यरूप, चैतन्यअनुविधायी परिणामरूप, सहजगुणमणि की खान, सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय), इत्यादि अनेक नामों से पहिचाना जाता है और उसके अनुभव से ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। उस भाव की अपेक्षा से ही सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही है - ऐसा कहा जाता है अर्थात् उसके अनुभव को ही निर्विकल्प अनुभूति कहा जाता है क्योंकि वह सामान्यभावस्वरूप होने से उसमें किसी भी विकल्प को स्थान ही नहीं है, इसलिए उसकी अनुभूति होते ही अंशतः सिद्धत्व का भी अनुभव होता है। भेदज्ञान की विधि ऐसी है कि जिसमें जीव के जो चार भावों को गौण किये और जो शुद्ध जीवत्व हाजिर हुआ, उस अपेक्षा से उसे कोई ‘पर्यायरहित का द्रव्य वह दृष्टि का विषय है ऐसा भी कहते हैं। अर्थात् द्रव्य में से कुछ भी निकालना नहीं है, मात्र विभावभावों को ही गौण करना है और उस अपेक्षा से कोई कहते हैं कि वर्तमान पर्याय के अतिरिक्त का पूरा द्रव्य वह दृष्टि
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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