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________________ सम्यग्दर्शन का स्वरूप योगसार, दोहा २१, अन्वयार्थ - 'जो जिन है, वह आत्मा है - यह सिद्धान्त का सार है। ऐसा तुम समझो। ऐसा समझकर हे योगियों ! अब मायाचार को छोड़ो।' 51 योगसार, दोहा २२, अन्वयार्थ - 'जो परमात्मा है, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही परमात्मा हैं ऐसा जानकर हे योगी ! अन्य विकल्प न करो।' ऊपर बतलायी गयी गाथाओं के सन्दर्भ में विचारेंगे तो लगेगा कि दिखते रूप से तो संसारी जीव शरीरस्थ है और सिद्ध के जीव मुक्त हैं, तो संसारी को सिद्ध जैसा कहा वह किस अपेक्षा से ? उत्तर - वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से, जैसे कि संसारी जीव शरीरस्थ होने पर भी, उनका आत्मा एक जीवत्वरूप पारिणामिकभावरूप होता है। वह जीवत्वरूप भाव छद्मस्थ को (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से ) अशुद्ध होता है और वह अशुद्ध जीवत्व भाव अर्थात् अशुद्धरूप से परिणमित आत्मा से अशुद्धि को (विभावभाव को ) गौण करते ही, जो जीवत्वरूप भाव शेष रहता है, उसे ही ‘परमपारिणामिकभाव', 'ध्रुवभाव', 'शुद्धात्मा', 'कारणपरमात्मा', ‘कारणशुद्धपर्याय’, ‘सिद्धसदृशभाव', 'स्वभावभाव' - इत्यादि अनेक नामों से पहिचाना जाता है और उस भाव की अपेक्षा से ही सर्व जीव स्वभाव से सिद्धसमान ही हैं - ऐसा कहा जाता है; अब हम इसी बात को दृष्टान्त से देखेंगे जैसे गंदले पानी में शुद्ध पानी छुपा हुआ है, वैसे निश्चय से जो कोई उसमें फिटकरी (कतक फल=ALUM) घुमाता है तो अमुक समय के बाद उसमें (पानी में ) रही हुई गंदगीरूप मिट्टी तल में बैठ जाने से, पूर्व का गंदला पानी स्वच्छरूप ज्ञात होता है। इसी प्रकार जो अशुद्धरूप (राग - द्वेषरूप) परिणमित आत्मा है, उसमें, विभावरूप अशुद्धभाव को प्रज्ञाछैनी से = बुद्धिपूर्वक गौण करते ही जो शुद्धात्मा ध्यान में आता है अर्थात् ज्ञान में विकल्परूप आता है, उसे भावभासन कहते हैं और शुद्धात्मा की अनुभूति होते ही जीव को सम्यग्दर्शन होता है अर्थात् वह जीव उ शुद्ध आत्मरूप में (स्वभाव में = स्वरूप में) 'मैंपना' करते ही कि जो पहले शरीर में 'मैंपना' करता था, उस जीव को सम्यग्दर्शन होता है; यह विधि है सम्यग्दर्शन की । अर्थात् जो जीव रागद्वेषरूप परिणमित होने पर भी मात्र शुद्धात्मा में ही (द्रव्यात्मा में ही = स्वभाव में ही ) 'मैंपना' (एकत्व) करता है और उसी का अनुभव करता है, वही जीव सम्यग्दृष्टि है अर्थात् वही सम्यग्दर्शन की विधि है । दूसरा दृष्टान्त - जैसे दर्पण में अलग-अलग प्रकार के अनेक प्रतिबिम्ब होते हैं परन्तु
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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