SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24 दृष्टि का विषय भावार्थ - 'घट को छोड़कर पट को और पट को छोड़कर अन्य पदार्थ को जानते समय ज्ञान पर्यायार्थिकनय से अन्यरूप कहलाने पर भी उसका ज्ञानपना उल्लंघन नहीं करता परन्तु सामान्यपने से (उस प्रतिबिम्ब को गौण करने पर जो भाव रहता है, उसे ही उसका सामान्य कहा जाता है, अर्थात् विशेष, सामान्य का ही बना हुआ होता है अर्थात् पर्यायरूप विशेष द्रव्यरूप सामान्य का ही बना हुआ होता है अर्थात् विशेष को पर्याय को गौण करते ही सामान्य= द्रव्य की अनुभूति होती है) निरन्तर " तदेवेदं" - वह ही यह है । अर्थात् यह वही ज्ञान है कि जिसकी पहले वह पर्याय थी और अभी यह पर्याय है (अर्थात् ज्ञान ही = ज्ञानगुण ही उस पर्यायरूप परिणमित हुआ है)। ऐसी प्रतीति होती है, इसलिए ज्ञानत्व सामान्य की अपेक्षा से ज्ञान नित्य है। जैसे कि-' गाथा १११ - अन्वयार्थ - 'उसका उदाहरण यह है कि जैसे निश्चय से आम्रफल में रूप नाम का गुण परिणमन करते-करते हरित में से पीला हो जाता है तो क्या इतने में उसके वर्णपने का नाश हो जाता है? अर्थात् नहीं होता। इसलिए वह वर्णपना नित्य है।' ऐसा है जैन सिद्धान्त का त्रिकाली ध्रुव । भावार्थ सामान्यरूप से तो वर्णपना तो वह का वही है, वह (वर्ण सामान्यपना) कहीं नष्ट नहीं हो गया, इसलिए वर्ण सामान्य की अपेक्षा से वह वर्ण गुण नित्य ही है।' इस प्रकार सामान्य की अपेक्षा से उसे कूटस्थ अथवा अपरिणामी कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं। अन्यथा मानने पर जैन सिद्धान्त के विरुद्ध अर्थात् अन्यमती मिथ्यात्वरूप परिणम जायेगा कि जो अनन्त संसार का कारण बनेगा। गाथा ११२ अन्वयार्थ - 'जैसे वस्तु (द्रव्य) परिणमनशील है, उसी प्रकार गुण भी परिणमनशील है (अन्यथा मानने से मिथ्यात्व का उदय समझना) इसलिए निश्चय से गुण के भी उत्पाद-व्यय दोनों होते हैं। ' - — भावार्थ 'इसलिए जैसे द्रव्य, परिणामी है, वैसे द्रव्य से अभिन्न रहनेवाले भी गुण परिणामी हैं, और वे परिणामी होने से उनमें प्रतिसमय उत्पाद-व्यय (कोई न कोई कार्य) भी हुआ ही करता है; और इस युक्ति से गुणों में उत्पाद - व्यय होने से उसे अनित्य भी कहने में आता है, साराँश कि-' गाथा ११३ - अन्वयार्थ - 'इसलिए जैसे ज्ञान नाम का गुण सामान्यरूप से नित्य है तथा उसी प्रकार घट को छोड़कर पट को जानने पर, ज्ञान नष्ट और उत्पन्नरूप भी है अर्थात् अनित्य भी है । '
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy