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________________ द्रव्य-पर्याय व्यवस्था जाता है। यहाँ समझने का यह है कि जो गुणों के समूहरूप द्रव्य है, उसका कोई न कोई आकार अवश्य होगा और उसका कोई न कोई रूप और कार्य भी अवश्य होगा ही अर्थात् उसमें जो आकार है, उसे उस द्रव्य की द्रव्यपर्याय अथवा व्यंजनपर्याय कहा जाता है और जो उसका वर्तमान कार्य है (परिणाम है=अवस्था है), उसे उस द्रव्य की गुणपर्याय अथवा अर्थपर्याय कहा जाता है। जैसे हमने ऊपर देखा, वैसे भेदरूप व्यवहार, अभूतार्थ है, वह मात्र तत्त्व समझने अथवा समझाने के लिये प्रयोग में लिया जाता है, अन्यथा वह कार्यकारी नहीं है और वस्तु का स्वरूप तो अभेद ही है और वही भूतार्थ है। इसीलिए सर्व कथन अपेक्षा से ग्रहण करना योग्य है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है अर्थात् उसे जो कोई एकान्त से ग्रहण करे अथवा समझावे तो वह मिथ्यादृष्टि है और वह नष्ट हो चुका है अर्थात् यह मनुष्यभव हार चुका है। (ऊपर बतलायी गाथा ६३६ देखना) प्रत्येक वस्तु का कार्य वस्तु से अभेद ही होता है और उसे ही उसका उपादानरूप परिणमन कहा जाता है और उस कार्य को अथवा अवस्था को, वर्तमान समय अपेक्षा से वर्तमान पर्याय कहा जाता है; इस कारण से कहने के लिये ऐसा कहा जा सकता है कि - पर्याय द्रव्य में से आती है, और द्रव्य में ही जाती है क्योंकि कोई भी द्रव्य (वस्तु) का कार्य उससे अभेद ही होता है, तथापि भेदनय से ऐसा कथन किया जा सकता है परन्तु इस कारण से वे दोनों भिन्न-भिन्न हैं - ऐसा नहीं है। द्रव्य और पर्याय को कथंचित् भिन्न कहा जाता है वह इस अपेक्षा से। कोई भी द्रव्य है वह नित्य है परन्तु कूटस्थ नित्य नहीं क्योंकि यदि उस वस्तु का कोई भी कार्य ही नहीं मानने में आये तो उस वस्तु का ही अभाव हो जायेगा, इसलिए प्रत्येक नित्य वस्तु का, जो वर्तमान कार्य है उसे ही उसकी पर्याय कहने में आती है और ऐसी भूत-भविष्य और वर्तमान की पर्यायों का समूह ही द्रव्य (वस्तु) है। अर्थात् अनुस्यूति से रचित पर्यायों का समूह, वही द्रव्य है। __वस्तु का स्वभाव है कि वह कायम रहकर परिणमती है। इसलिए उस वस्तु में एक टिकता भाव है और एक परिणमता भाव है, उसमें से जो टिकता भाव है उसे नित्यरूप अर्थात् द्रव्य कहा जाता है, त्रिकाली ध्रुव कहा जाता है, और जो परिणमता भाव है, उसे पर्याय कहा जाता है, अर्थात् वस्तु में एक टिकता भाग और एक परिणमता भाग ऐसे दो भाग अर्थात् विभाग नहीं हैं। यदि ऐसे कोई विभाग मानने में आवे तो वस्तु एक-अखण्ड-अभेद न रहकर दो - भिन्न हो जाये
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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