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________________ दृष्टि का विषय भावार्थ - “इसलिए हमारा यह कहना ठीक है कि भाव की अपेक्षा से भी 'सत्' एक और अखण्डित है तथा ऐसा कहना वह भी नय विशेष की विवक्षा से है परन्तु सर्वथा नहीं।" अर्थात् अभेदनय से है, भेदनय से नहीं। गाथा १४३ :- अन्वयार्थ :- ‘सत्ता, सत्त्व अथवा सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये नौ शब्द सामान्यरूप से एक द्रव्यरूप अर्थ के ही वाचक हैं।' इसलिए यदि ऐसा कहने में आवे कि एक सत्ता के दो सत् हैं या तीन सत् हैं या चार सत् हैं या अनन्त सत हैं तो यह कथन भेदनय की अपेक्षा से समझना। क्योंकि सत्ता और सत ये दोनों एकार्थवाचक ही हैं, तथापि भेद की अपेक्षा से एक सत्ता के दो, तीन, चार, अथवा अनन्त भेद करके भेदनय से कथन किया जा सकता है परन्तु वास्तव में (वस्तुतः) तो सत् कहो या सत्ता कहो, वह एक, अभेद ही है अर्थात् जो भी भेद किये हैं, वे तो मात्र वस्तु को समझाने के लिए ही हैं, भेदरूप व्यवहारमात्र ही है। गाथा ५२४ :- अन्वयार्थ :- ‘अनन्त धर्मवाले एक धर्मी के विषय में आस्तिक्य बुद्धि होना, वही इस व्यवहारनय का फल है...' अर्थात् व्यवहाररूप भेद मात्र आस्तिक्य बुद्धि होने के लिए ही है, अन्यथा नहीं। भावार्थ :- “पूर्वोक्त प्रकार के व्यवहार को मानने का प्रयोजन यह है कि 'वस्तु के अनन्त धर्म होने पर भी वह एक अखण्ड वस्तु है' ऐसी प्रतीति करना, अर्थात् गुण-गुणी अभेद होने से गुणों को जानने पर गुणी का सुप्रतीत (पहिचान) जीव को हो तो यह व्यवहारनय का यथार्थ फल आया कहलाता है। व्यवहार के आश्रय का फल विकल्प - राग-द्वेष है, इसलिए भेद का आश्रय न करके अर्थात् इस नय द्वारा कहे हुए गुण के भेद में न रुककर अभेद द्रव्य की प्रतीति करना वह इस नय के ज्ञान का फल है, यह फल न आवे तो वह नयज्ञान यथार्थ नहीं है।" गाथा ६३४-६३५ :- अन्वयार्थ :- ‘निश्चय से व्यवहारनय अभूतार्थ है (अर्थात् सम्यग्दर्शन के लिए अर्थात् आत्मा की अभेद अनुभूति के लिए कार्यकारी नहीं है) उसमें यह कारण है कि यहाँ सूत्र में जो द्रव्य को गुणवाला कहा है, उसका अर्थ करने से यहाँ पर गुण, अलग है, द्रव्य अलग है तथा गुण के योग से वह द्रव्य गुणवाला कहलाता है ऐसा अर्थ सिद्ध होता है (ज्ञात होता है) परन्तु वह ठीक नहीं है क्योंकि न गुण है, न द्रव्य है, न उभय है, न इन दोनों का योग है परन्तु केवल अद्वैत सत् (अभेदद्रव्य) है तथा उसी सत् को चाहे गुण मानो अथवा द्रव्य मानो, परन्तु वह भिन्न नहीं अर्थात् निश्चय से अभिन्न ही है।'
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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