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________________ पूर्वभूमिका पूर्वभूमिका अनादि से अपना आत्मा इस संसार में सम्यग्दर्शन के अभाव के कारण ही भटकता है अर्थात् अनन्त पुद्गल परावर्तन से अपना आत्मा इस संसार में अनन्त दु:ख सहन करते हुए घूमता है और उसका मुख्य कारण है मिथ्यात्व अर्थात् सम्यग्दर्शन का अभाव। यह मिथ्यात्व अपना महान शत्रु है - ऐसा ज्ञान न होने के कारण बहुत से जीव अन्य-अन्य शत्रु की कल्पना करके आपस में लड़ते ज्ञात होते हैं और उसी में यह अमूल्य जीवन पूरा करके, फिर अनन्त काल के दुःखों को आमन्त्रण देते हैं। परमात्म प्रकाश - त्रिविध आत्माधिकार गाथा ६५ में भी बतलाया है कि इस जगत में (In the Universe) ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं कि जहाँ चौरासी लाख जीव योनि में उत्पन्न होकर, भेदाभेद रत्नत्रय के प्रतिपादक जिन वचन को प्राप्त नहीं करता हुआ यह जीव अनादि काल से न भ्रमा हो।' सर्व आत्मा स्वभाव से सुख स्वरूप ही होने से, सुख के ही इच्छुक होते हैं, तथापि सच्चे सुख की जानकारी अथवा अनुभव न होने के कारण अनादि से अपना आत्मा शारीरिकइन्द्रियजन्य सुख, जो कि वास्तव में सुख नहीं है परन्तु वह मात्र सुखाभासरूप ही है अर्थात वह सुख दुःखपूर्वक ही होता है अर्थात् वह सुख इन्द्रियों के आकुलतारूप दुःख को/वेग को शान्त करने को ही सेवन किया जाता है तथापि वह सुख अग्नि में ईंधनरूप ही होता है; अर्थात् वह सुख बारम्बार उसकी इच्छारूप दुःख जागृत करने का ही काम करता है और वह सुख (भोग) भोगते हुए जो नया पाप बँधता है वह नये दुःखों का कारण बनता है अर्थात् वैसा सुख दुःखपूर्वक और दुःख फल सहित ही होता है, उसके पीछे ही पागल बनकर भगा है। दूसरा, शारीरिकइन्द्रियजन्य सुख क्षणिक है क्योंकि वह सुख अमुक काल के पश्चात् नियम से जानेवाला है अर्थात् जीव को ऐसा सुख मात्र तृष पर्याय में ही मिलनेयोग्य है जो कि बहुत अल्प काल के लिये होता है, पश्चात् वह जीव नियम से एकेन्द्रिय में जाता है कि जहाँ अनन्त काल तक अनन्त दुःख भोगने पड़ते हैं और एकेन्द्रिय में से बाहर निकलना भी भगवान ने चिन्तामणि रत्न की प्राप्तितुल्य दुर्लभ बतलाया है। __जैसा कि आत्मानुशासन, गाथा ५१ में बतलाया है कि ‘काले नाग जैसे प्राण नाश करनेवाले ऐसे इस भोग की तीव्र अभिलाषा से भूत, भावि और वर्तमान भवों को नष्ट करके तू
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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