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________________ समयसार के परिशिष्ट में से अनेकान्त का स्वरूप 167 ३८ समयसार के परिशिष्ट में से अनेकान्त का स्वरूप वस्तु का स्वरूप अनेकान्तमय है और वह जैसा है वैसा ही' समझना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा मिथ्यात्व का नाश शक्य ही नहीं। अनेकान्त का स्वरूप समयसार के परिशिष्ट में बतलाया है, उस पर थोड़ा सा प्रकाश डालते हैं। श्लोक २४७ (के बाद की टीका) ....और जब वह ज्ञानमात्रभाव एक ज्ञान-आकार का ग्रहण करने के लिये अनेक ज्ञेयाकारों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् परमपारिणामिकभाव की अनुभूति के लिये अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये ‘जीव वास्तव में पर को नहीं जानता' ऐसी प्ररूपणा करके ज्ञान में जो अनेक ज्ञेयों के आकार होते हैं, उनका त्याग करके अपने को नष्ट करता है अर्थात् ज्ञेयों के त्याग में ज्ञान सामान्य अर्थात् परमपारिणामिकभाव नष्ट होता है अर्थात् ‘आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानता' ऐसा कहने से ज्ञान के नाश का प्रसंग आता है। यही बात अपेक्षा लगाकर कही जाये तो समझी जा सकती है परन्तु यह बात एकान्त से सत्य नहीं है।) तब पर्यायों से अनेकपना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता (अर्थात् अनेकान्त ही बलवान है कि जिसके कारण आत्मा को स्व-पर प्रकाशकपना स्वभाविक है।) ४.... जब यह ज्ञानमात्रभाव जानने में आते हुए ऐसे परद्रव्यों के परिणमन के कारण ज्ञातृद्रव्य को परद्रव्यरूप मानकर-अंगीकार करके नाश को प्राप्त होता है, (अर्थात् आत्मा वास्तव में पर को जानता है परन्तु पर को जाननेरूप वह जब स्वयं परिणमता है, तब उसे परद्रव्यरूप मानकर-उसे परद्रव्यरूप अंगीकार करके, स्वयं नाश को प्राप्त होता है अर्थात् मिथ्यात्व पुष्ट करता है), तब (उस ज्ञानमात्रभाव का अर्थात् ज्ञेयों को) स्वद्रव्य से सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है-नाश को प्राप्त नहीं होने देता। ५.... जब यह ज्ञानमात्रभाव अनित्य ज्ञान विशेषों द्वारा (अर्थात् पर को जाननेरूप परिणमकर) अपना नित्य ज्ञान सामान्य खण्डित हआ मानकर नाश को प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्रभाव का) ज्ञान सामान्यरूप से नित्यपना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है-नाश को प्राप्त नहीं होने देता। (अर्थात् जो ऐसा मानते हैं कि ‘आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानता, ऐसा मानने से ही सम्यग्दर्शन होता है वे भूलयुक्त हैं क्योंकि पर का जानन अथवा जनाना कभी भी सम्यग्दर्शन के लिये बाधाकारक नहीं होता, क्योंकि-उस पर के जानने के परिणमनरूप अपने विशेष आकारों
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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