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________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन जो चेतनेवाला है, वह निश्चय से मैं हूँ ( अर्थात् जो जानने-देखनेवाला है, वही निश्चय से मैं हूँ क्योंकि ज्ञान वह आत्मा का लक्षण होने से आत्मा मात्र ज्ञान से ही ग्राह्य है परन्तु जो सामान्य ज्ञान है, वह केवली के तरह छद्मस्थ के ज्ञान का विषय नहीं होता, वह मात्र अनुभूतिका विष है, इसलिए वह अनुभव में आता है परन्तु केवली जैसे जानते हैं वैसे छद्मस्थ को जानने में आता न होने से, सामान्यज्ञान को उसके लक्षण से अर्थात् पदार्थ के ज्ञान से अर्थात् पर के ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। इसलिए अपेक्षा से कहा जाता है कि 'पर का जानना वह ज्ञायक में जाने की सीढ़ी है' अर्थात् जिस तल पर परपदार्थ ज्ञात होते हैं, वह तल ही सामान्य ज्ञान है अर्थात् जो ज्ञेयाकार है, वह ज्ञान का बना हुआ होने से वास्तव में वह ज्ञानाकार ही है और उसमें आकार को गौण करते ही, वहाँ ज्ञानमात्र अर्थात् सामान्यज्ञानरूप ज्ञायक ही है कि जो परमपारिणामिकभावरूप अर्थात् आत्मा के ज्ञानगुण के सहज परिणमनरूप है और उसे ही शुद्धात्मा अर्थात् ज्ञायक कहा जाता है, वह प्राप्त होता है और उसमें ही 'मैंपना' करने से, स्वात्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है; यही विधि है सम्यग्दर्शन की । ) बाकी के जो भाव हैं (अर्थात् जो ज्ञेयाकार हैं, अर्थात् जो राग-द्वेष इत्यादि विभावभाव हैं) वे मुझसे पर हैं (अर्थात् उनसे भेदज्ञान करना किस प्रकार करना ? उत्तर- उन राग-द्वेष इत्यादि विभावभावों को अत्यन्त गौण करने से वे दृष्टि में ही नहीं आते यही भेदविज्ञान की विधि है) ऐसा जानना ।' यही भाव आगे दृढ़ करते हैं 161 गाथा २९८-२९९ गाथार्थ - 'प्रज्ञा द्वारा ऐसा ग्रहण करना कि जो देखनेवाला है वह निश्चय से मैं हूँ, बाकी के जो भाव हैं वे मुझसे पर हैं ऐसा जानना और प्रज्ञा द्वारा ऐसा ग्रहण करना जाननेवाला है वह निश्चय से मैं हूँ, बाकी के जो भाव हैं, वे मुझसे पर हैं, ऐसा जानना ।' पूर्व में जो समझाया है, उसे ही यहाँ - इन गाथाओं में प्रतिपादित किया है। गाथा ३०६-३०७ गाथार्थ - 'प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, और शुद्धि-ये आठ प्रकार का विषकुम्भ है (अर्थात् जो पूर्व में बतलाया, वैसे समयसार शास्त्र भेदज्ञान कराने के लिये होने से अर्थात् इस शास्त्र में एकमात्र शुद्धात्मा का ही लक्ष्य कराने का उद्देश्य होने से और उसमें ही 'मैंपना' कराकर स्वात्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दृष्टि बनाने का उद्देश्य होने से और उस सम्यग्दर्शन का विषय तथा सम्यग्दर्शन होने के बाद ध्यान का विषय भी शुद्धात्मा ही है, कि जिसका स्वरूप सर्व विकल्परहित ऐसा निर्विकल्प है, इसलिए यहाँ बतलाये सर्व विकल्पयुक्त भावों को विकल्प अपेक्षा से विषकुम्भ कहा है। क्योंकि जो जीव यहाँ बतलाये हु सर्व विकल्पयुक्त भावों में ही रहता है और धर्म हुआ मानता है तो वह उसके लिये विषकुम्भ समान
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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