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________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन अन्दर और बाहर (अर्थात् पूर्ण आत्मा में) समतारसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है, ऐसे अनुभूति मात्र एक अपने भाव को (परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा को ) प्राप्त करते हैं । ' 153 श्लोक ९९-‘अचल (अर्थात् तीनों काल ऐसा का ऐसा ही परिणमता), व्यक्त (अनुभव प्रत्यक्ष) और चित् शक्तियों के समूह के भार से अत्यन्त गम्भीर (अर्थात् मात्र ज्ञानघनरूप) यह ज्ञानज्योति (अर्थात् ज्ञान सामान्यभावरूप ज्ञायक = शुद्धात्मा) अन्तरंग में उग्ररूप से इस प्रकार से ज्वाजल्यमान हुई कि-आत्मा अज्ञान में (पर का) कर्ता होता था वह अब कर्ता नहीं होता (अर्थात् पर का कर्तापना धारण करते भाव में एकत्व नहीं करता) और अज्ञान के निमित्त से पुद्गलकर्मरूप होता था, वह कर्मरूप नहीं होता ( अर्थात् अज्ञान के निमित्त से जो बन्ध होता था वह अज्ञान जाते ही, उसके निमित्त से होनेवाला बन्ध भी अब नहीं); और ज्ञान, ज्ञानरूप ही रहता है (अर्थात् ज्ञानी अपने को सामान्य ज्ञानरूप शुद्धात्मा ही अनुभव करता है जो कि त्रिकाल ज्ञानरूप ही रहता है) और पुद्गल, पुद्गलरूप ही रहता है (अर्थात् ज्ञानी पुद्गल को पुद्गलरूप और उससे होनेवाले भावों को भी उस रूप ही जानकर, उनमें 'मैंपना' नहीं करता अर्थात् ज्ञानी इस प्रकार भेदज्ञान करता है)।' इस प्रकार सम्यग्दर्शन प्रगट करता है। ३. पुण्य-पाप अधिकार : इस अधिकार में भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये जो सम्यग्दर्शन का विषय है अर्थात् जो शुद्धात्मा है, उसमें बन्धरूप कोई भी भाव न होने से अर्थात् उसमें सर्व विभावभाव का अभाव होने से, बन्धमात्र भाव अर्थात् शुभभाव और अशुभभाव, ये दोनों (दृष्टि के विषय में) नहीं हैं ऐसा बतलाने के लिये दोनों को एक समान कहा है अर्थात् पुण्य और पाप अर्थात् शुभभाव और अशुभभाव, सम्यग्दर्शन के विषयरूप परम पारिणामिकभावरूपसहज परिणमनरूप शुद्ध आत्मा में न होने से, दोनों को समान अपेक्षा से हेय कहा है अर्थात् दोनों विभावभाव होने से -बन्धरूप होने से एकसमान हेय है। यहाँ किसी को एकान्त से ऐसा नहीं समझना क्योंकि अशुभभाव में परिणमने का कभी कोई उपदेश होता ही नहीं, परन्तु यहाँ बतलाये अनुसार सम्यग्दर्शन कराने को, दोनों भावों से भेदज्ञान कराया है और भेदज्ञान की अपेक्षा से दोनों समान ही है, नहीं कि अन्यथा । यदि कोई अन्यथा पुण्य को हेय समझकर अथवा तो पुण्य-पाप को समानरूप से हेय समझकर, स्वच्छन्दता से पापरूप अर्थात् अशुभभाव से परिणमते हों, उसी में रचते हों तो वह उन्हें महाअनर्थ का कारण है। यदि कोई इसी प्रकार से एकान्त समझकर, इसी प्रकार से एकान्त
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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