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________________ समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय अनहद, उत्कृष्ट) है।' ऐसी है आत्मा की अनुभूति कि जो हम अनेक बार अनुभवते हैं और वह सर्व मुमुक्षु जीवों को प्राप्त हो ऐसा चाहते हैं। 149 इस प्रकार सम्यग्दर्शन की सिद्धि होने से, यहीं समयसार पूर्ण हो जाता है; अब बाद का जो विस्तार है, वह तो मात्र विस्तार रुचि जीवों को, विस्तार से इसी शुद्धात्मा में 'मैंपना' कराकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये, विस्तार से भेदज्ञान समझाया है। अर्थात् यह जीव अनादि से जो नौ तत्त्वोंरूप अलग-अलग वेश में परिणमकर और पर में कर्ताभाव को पोषण कर ठगाया जाता है, उस ठगामण को स्पष्ट करके, उस ठगामण को दूर कराने के लिये विस्तार से, सर्व भावों के साथ भेदज्ञान कराया है। किसी ने ऐसा नहीं समझना कि यह नव तत्त्वरूप भाव एकान्त से जीव के नहीं हैं अर्थात् ये नव तत्त्वरूप भाव हैं तो जीव के ही, परन्तु उनमें 'मैंपना' करने योग्य वे भाव नहीं हैं, इस अपेक्षा से उन्हें जीव के नहीं हैं ऐसा कहा है और उन्हें उसी प्रकार से समझना अति आवश्यक है। यदि कोई एकान्त से ऐसा कहे कि ये नव तत्त्वरूप भाव मेरे भाव ही नहीं हैं तो वह भ्रमरूप परिणमकर अनन्त संसार को बढ़ानेवाला बनेगा। इसलिए जिस अपेक्षा से जहाँ जो कहा हो, उसी अपेक्षा से वहाँ वह समझना और वैसा ही आचरण करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा तो स्वच्छन्दता से भ्रमरूप परिणमकर अपने को ज्ञानी मानता हुआ वह जीव अपना और अन्य अनेक का अहित करता हुआ, स्वयं तो भ्रष्ट है ही और अन्य अनेकों को भी भ्रष्ट करेगा।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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