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________________ समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय अनुभूति होती है, इस हेतु से यह नियम कहा ) । वहाँ, विकारी होने योग्य (आत्मा) और विकार करनेवाला (कर्म) ये दोनों पुण्य हैं.... क्योंकि एक को ही (आत्मा को) अपने आप (स्वभाव से) पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष की उपपत्ति (सिद्धि- - उस भावरूप आत्मा का परिणमना) नहीं होता। वे दोनों जीव (भावकर्म) और अजीव (द्रव्यकर्म) है ( अर्थात् उन दोनों में एक जीव है और दूसरा अजीव है)। 143 बाह्य (स्थूल) दृष्टि से देखा जाये तो जीव- पुद्गल के अनादि बन्ध पर्याय के समीप जाकर एकपने अनुभव करने पर ये नव तत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं (अर्थात् आगम में निरुपित पाँच भावयुक्त जीव में ये नव तत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ है) और एक जीवद्रव्य के स्वभाव ('स्व' का भाव = 'स्व' का सहज परिणमनरूप भाव=परमपारिणामिकभाव=कारणशुद्धपर्याय=कारण शुद्धपरमात्मरूपभाव) के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। (समयसार जैसे अध्यात्म ग्रन्थ में निरूपित शुद्धात्मरूप जीव में वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं)। ( जीव के एकाकार स्वरूप में वे नहीं हैं) इसलिए इन नव तत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है...' यही गाथा का भाव श्लोक ८ में विशेषरूप से समझाया गया है। श्लोक ८-‘इस प्रकार नौ तत्त्वों में बहुत काल से छुपी हुई इस आत्म ज्योति को (अर्थात् आत्मा के उदय-क्षयोपशमरूप जो भाव हैं, वे सर्व जीवों को अनादि के होते हैं और जो जीव अज्ञानी है, वह उन्हीं भावों में रमता है तथापि प्रत्येक जीव को अनादि से परमपारिणामिकभावरूप छुपी हुई आत्मज्योति मौजूद ही होती है, हाजिर ही होती है। मात्र उदय-क्षयोपशमरूप भावों को गौण करके उसका लक्ष्य करते ही वह प्राप्त होती है अर्थात् इन नौ तत्त्वों को गौण करते ही जो सामान्य जीवत्वभाव शेष रहता है, वह तीनों काल शुद्ध होने से, कहा है कि नौ तत्त्वों में बहुत काल से छुपी हुई आत्मज्योति को), जैसे वर्णों के समूह में छुपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकाले वैसे (अशुद्धात्मा में से अशुद्धि को गौण करते ही, उसमें छुपा हुआ एकाकार = अभेद शुद्धात्मा साक्षात् होता है वैसे), शुद्धनय से (अर्थात् ऊपर कहे अनुसार अशुद्धभावों को गौण करते ही) बाहर निकालकर प्रगट की गयी है। इसलिए हे भव्य जीवों ! हमेशा उसे अन्य द्रव्यों से (अर्थात् पुद्गलरूपकर्म-नोकर्म से) तथा उनसे होनेवाले नैमित्तिकभावों से (अर्थात् औदयिकभावों से) भिन्न (अर्थात् हमने पूर्व में जो दो प्रकार से भेदज्ञान करने का बतलाया था वैसे); एकरूप देखो। यह (ज्योति=परमपारिणामिकभाव), पद-पद पर अर्थात् पर्याय- पर्याय में एकरूप चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान है। (अर्थात् प्रत्येक पर्याय में पूर्ण जीव व्यक्त होता ही होने से अर्थात् पर्याय में पूर्ण
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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