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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 105 ३२ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय आगे हम नियमसार की गाथायें तथा श्लोक देखेंगे कि जिसमें सम्यग्दर्शन का विषय और सम्यग्दृष्टि के ध्यान का विषय / स्थिरता का विषय बतलाया है। गाथा ३८ अन्वयार्थ-‘जीवादि बाह्यतत्त्व हेय हैं; कर्मोपाधिजनित गुणपर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा आत्मा को उपादेय है।' यहाँ जो जीवादि विशेषरूप ( अर्थात् पर्यायरूप) तत्त्व हेय कहे हैं अर्थात् कर्मों के निमित्त से हुए जीव के विशेष भाव (अर्थात् विभाव पर्यायों) को हेयरूप बतलाया है, उसका अर्थ ऐसा है कि उन भावों में सम्यग्दर्शन के लिये 'मैंपना' नहीं करना इस अपेक्षा से वे हेयरूप हैं। जबकि वे पर्यायें (अर्थात् पूर्ण द्रव्य) में छुपे हुए सामान्यभाव अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा सम्यग्दर्शन का विषय होने से आत्मा को उपादेय है, उसमें ही 'मैंपना' करने योग्य है क्योंकि वह त्रिकाली शुद्धभाव है और शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के चक्षु से आत्मा मात्र उतना ही है, और वैसा ही (शुद्ध ही) है। इसलिए इस शुद्धात्मा के अतिरिक्त समस्त भाव जीव में ही होते होने पर भी, वे अन्य के लक्ष्य से होते होने से, उनमें सम्यग्दर्शन के लिये 'मैंपना' (एकत्व) करने योग्य नहीं है इसलिए इस अपेक्षा से वे जीव के भाव ही नहीं हैं, ऐसा पूर्व में बतलाया है, वही भाव आगे गाथा में दर्शाया है। श्लोक ६० अन्वयार्थ-‘सततरूप से अखण्ड ज्ञान की ( अर्थात् जो ज्ञान विकल्पवाला है वह खण्ड-खण्ड है इसलिए उन ज्ञानाकारों को गौण करते ही अखण्ड ज्ञान की प्राप्ति होती है और वही परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा कहलाता है) सद्भावनावाला आत्मा (अर्थात् 'मैं अखण्ड ज्ञान हूँ' ऐसी सच्ची भावना जिसे निरन्तर वर्तती है, वह आत्मा) संसार के घोर विकल्प को नहीं पाता परन्तु निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करता हुआ परपरिणति से दूर, अनुपम, अनघ ( दोषरहित, निष्पाप, मलरहित ) चिन्मात्र (चिन्मात्र आत्मा को ) प्राप्त करता है।' अर्थात् वह जीव सम्यग्दर्शन को पाता है; वह जीव आत्मज्ञानी होता है। गाथा ४३ अन्वयार्थ-‘आत्मा (परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा) निर्दण्ड, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निःशरीर, निरालम्ब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ, निर्भय है । ' श्लोक ६४ अन्वयार्थ-‘जो आत्मा भव्यता द्वारा प्रेरित हो, वह आत्मा भव से विमुक्त होने के हेतु (अर्थात् सम्यग्दृष्टि होने और मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने) के लिये निरन्तर इस आत्मा को (अर्थात् ऊपर बतलाये शुद्धात्मा को) भजो कि जो (आत्मा) अनुपम ज्ञान के आधीन है, जो सहज गुणमणि
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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