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________________ साधक को सलाह अनुभव हुआ अथवा कोई कहते हैं कि हम रोमांचित हो गये, इत्यादि । तो ऐसे साधकों को हम बतलाते हैं कि ऐसे भ्रमों से ठगानेयोग्य नहीं है, क्योंकि स्वात्मानुभूति के काल में शरीर का किसी भी प्रकार का अनुभव होता ही नहीं, मात्र सिद्ध सदृश आत्मा का ही अनुभव होता है अर्थात् आंशिक सिद्ध सदृश आनन्द का अनुभव होता है अर्थात् आंशिक सिद्धत्व का ही अनुभव होता है और फिर आत्मा के सन्दर्भ में कोई भी प्रश्न रहता ही नहीं। इतना स्पष्ट अनुभव होता है। अर्थात् स्वात्मानुभूति के बाद शरीर से भेदज्ञान वर्तता होता है । दृष्टान्तरूप से - स्वात्मानुभूति के बाद आप दर्पण के सामने जब भी जाओ तब आप कोई त्राहित व्यक्ति को निहारते हों ऐसा भाव आता है। 103 सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के बाद, प्रवचनसार गाथा २०२ के अनुसार, सम्यग्दृष्टि जीव का विकास क्रम ऐसा होता है - 'सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानता है, अनुभव करता है, अन्य समस्त व्यवहारभावों से अपने को भिन्न जानता है। जबसे उसे स्व-पर के विवेकरूप भेदविज्ञान प्रगट हुआ था, तब से ही वह सकल विभावभावों का त्याग कर चुका है और से ही उसने टंकोत्कीर्ण निजभाव अंगीकार किया है। इसलिए उसे नहीं कुछ भी त्यागना रहा अथवा नहीं कुछ ग्रहण करना - अंगीकार करना रहा। स्वभावदृष्टि की अपेक्षा से ऐसा होने पर भी, पर्याय में वह पूर्वबद्ध कर्मों के उदय के निमित्त से अनेक प्रकार के विभावभावों रूप से परिणमता है। वह विभाव परिणति नहीं छूटती देखकर वह आकुल-व्याकुल भी नहीं होता तथा समस्त विभा परिणति को टालने का पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं रहता । सकल विभाव परिणतिरहित स्वभाव दृष्टि के जोररूप पुरुषार्थ से गुणस्थानों की परिपाटी के सामान्य क्रम अनुसार उसे पहिले अशुभ परिणति की हानि होती है और फिर धीमे-धीमे शुभ परिणति भी छूटती जाती है। ऐसा होने से उस शुभराग के उदय की भूमिका में गृहवास का और कुटुम्ब का त्यागी होकर व्यवहाररत्नत्रयरूप पंचाचारों को अंगीकार करता है। यद्यपि ज्ञानभाव से वह समस्त शुभाशुभ क्रियाओं का त्यागी है, तथापि पर्याय में शुभराग नहीं छूटता होने से वह पूर्वोक्त प्रकार से पंचाचार को ग्रहण करता है । ' जिस धर्म में (अर्थात् जैन सिद्धान्त में) 'सर्व जीव स्वभाव से सिद्धसमान ही हैं' - ऐसा कहा हो, इसलिए सर्व जीवों को अपने समान ही देखते हुए, कहीं भी वैर-विरोध को अवकाश ही कहाँ से होगा? अर्थात् विश्व मैत्री की भावना ही होती है और ऐसे धर्म में धर्म के ही नाम से वैर-विरोध और झगड़ा हो तो, उसमें समझना कि अवश्य हमने धर्म का रहस्य समझा ही नहीं है। इसलिए कहीं भी धर्म के लिये वैर, विरोध या झगड़ा न हो क्योंकि धर्म प्रत्येक की समझ अनुसार प्रत्येक को परिणमनेवाला है और इसीलिए उसमें मतभेद अवश्य रहने ही वाले हैं परन्तु
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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