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________________ 100 दृष्टि का विषय ___ यहाँ कोई कहे कि आप तो शुभ की बात कर रहे हो? उन्हें हम कहते हैं कि कोई भी जीव निरन्तर कोई न कोई (शुभ अथवा अशुभ) ध्यान/भाव करके अनन्तानन्त कर्म से बँध ही रहा है और यदि वह प्रयत्नपूर्वक आत्मलक्ष्य से शुभ में नहीं रहे तो नियम से अशुभ में ही रहेगा कि जिसका फल नरकगति तथा अनन्त काल की तिर्यंच गति है; जबकि एकमात्र आत्मलक्ष्य से जो जीव शुभ में प्रयत्नपूर्वक रहता है, उसे मनुष्यगति, देव-शास्त्र-गुरु तथा केवली प्ररूपित जिनधर्म इत्यादि मिलने की सम्भावनायें खड़ी रहती हैं और उसके कल्याण के दरवाजे खुले रहते हैं और इसीलिए अर्थात् इसी अपेक्षा से हम आत्मलक्ष्य से शुभ में रहने को कहते हैं, परन्तु उसमें एकमात्र लक्ष्य आत्मप्राप्ति ही होना चाहिए, अन्यथा शुभभाव भी अशुभभाव की तरह ही जीव को बाँधता है और अनन्त संसार में भटकाता है, अनन्त दुःखों का कारण बनता है। कोई ऐसा माने कि मुमुक्षु जीव को योग्यता उसके काल में हो जायेगी, उसके लिये प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है; तो उनसे हम प्रश्न करते हैं कि आप जीवन में पैसा, प्रतिष्ठा, परिवार इत्यादि के लिये प्रयत्न करते हो? या फिर आप कहते हो कि वे उनके काल में आ जायेंगे, बोलो आ जायेंगे? तो उत्तर अपेक्षित ही मिलता है कि हम उनके लिये प्रयत्न करते हैं। तो हम प्रश्न करते हैं कि जो वस्तु अथवा संयोग कर्म अनुसार अपने आप आकर मिलनेवाले हैं, उनके लिये आप बहुत ही प्रयत्न करते हो, परन्तु जो आत्मा के घर का है, ऐसा पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्नपूर्वक आत्मा के उद्धार के लिये ऊपर बतलाया हुआ तथा; अन्य आचरण जीवन में करने में उपेक्षा सेवन करते हो, तो आप जैन सिद्धान्त की अपेक्षा न समझकर उन्हें अन्यथा ही समझे हो, ऐसा ही कहना पड़ेगा, क्योंकि जैन सिद्धान्तानुसार कोई भी कार्य होने के लिये पाँच समवाय का होना आवश्यक है और उनमें आत्मस्वभाव में पुरुषार्थ, वह उपादान कारण होने से, यदि आप उसकी उपेक्षा करके मात्र निमित्त की राह देखकर बैठे रहोगे अथवा नियति के समक्ष देखकर बैठे रहोगे तो आत्मप्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। इसलिए मुमुक्षु जीव को अपना पुरुषार्थ अधिक में अधिक आत्मधर्म क्षेत्र में प्रवर्तन करना आवश्यक है और थोड़ा सा (अल्प) ही काल जीवन की आवश्यकताओं को अर्जित करने में डालना, यह प्रथम आवश्यकता है। जैसे आत्मानुशासन गाथा ७८ में बतलाया है कि 'हे जीव! आत्मकल्याण के लिये कुछ यत्न कर! कर! क्यों षठ होकर प्रमादी बन रहा है? जब वह काल अपनी तीव्र गति से आ पहुँचेगा तब यत्न करने पर भी वह रुकेगा नहीं ऐसा तू निश्चय समझ। कब, कहाँ से और किस प्रकार वह काल अचानक आ चढ़ेगा, इसकी भी किसी को खबर नहीं है। वह दुष्ट यमराज, जीव को
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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