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________________ प्रथम अध्याय अथाऽतोज्वरचिकित्सितं व्याक्ष्यास्यामः इति ह समाहुरात्रेयादयो महर्षयः । अर्थ : निदान स्थान निरूपण के बाद ज्वर चिकित्सा का व्याख्यान करेंगे । ऐसा आत्रेयादि महर्षियों ने कहा था । ज्वर में लघंन की आवश्यकता ....... आमाशयस्थो हत्वाऽग्नि सामो मार्गान् पिधाय यत् । विदधाति ज्वरं दोशस्तस्मात्कुर्वीत लघंनम् | 1 | | प्राग्रूपेषु ज्वरादौ वा बलं यत्नेन पालयन् । बलाधिष्ठानमारोग्यमारोग्यार्थ क्रियाक्रमः | 2 || लङ्घनैः क्षपिते दोषे दीप्तेऽग्नौ लाघवे सति । स्वास्थ्यं क्षुत्तृड् रूचिः पक्तिर्बलमोजश्च जायते | 3 || अर्थ : आमाशय में स्थित वातादि दोष आमरस के साथ मिल कर तथा रसवाही स्रोतसों के मार्ग को अवरूद्ध कर ज्वर उत्पन्न करते हैं । ज्वर में या ज्वर के पूर्वरूप में प्रयत्न पूर्वक बल की रक्षा करते हुए लघंन करें। क्योंकि बल के अधीन आरोग्य की प्राप्ति होती है और आरोग्य के लिए चिकित्सा क्रम बताया गया है । लघंन के द्वारा दोषों के क्षय होने पर तथा अग्नि के प्रदीप्त होने पर और शरीर में लघुता होने पर आरोग्य, भूख, प्यास, भोजन में रूचि, भोजन का परिपाक, बल तथा ओज की वृद्धि होती है । विश्लेषण : ज्वर की समाप्ति बताते हुए ज्वर किस प्रकार उत्पन्न होता है इसका निर्देष किया गया है। आम दोष पृथक्-पृथक्या द्वन्द्वज या त्रिदोषज जब आमरस के साथ होकर आमाशय में स्थित होते हैं तब अग्नि की उष्णता को बाहर त्वचा में फैला देते हैं । रसवाही स्रोतसों के बन्द होने से पसीना नहीं निकल पाता। जिसके कारण त्वचा उष्ण हो जाती है। दोष अग्नि के उष्मा को निकाल देते हैं । अतः जाठराग्नि दुर्बल हो जाती है। दोष से आवृत अग्नि दोषों को पचाने में पूर्ण समर्थ नहीं होती है। यदि ऐसी अवस्था में अन्न दिया जाय तो उसका परिपाक समुचित न होकर आम दोष की अधिकता हो जायेगी। जब भोजन नहीं करेंगे तो अग्नि आमदोष को धीरे-धीरे पकानें 5
SR No.009377
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 02 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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