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________________ प्रथम अध्याय आयुर्वेद के बारे में वायु पित्तं कफश्चेति त्रयों समासतः विकृता ऽ विकृता देहं नन्ति ते वर्तयन्ति च। ते व्यापिनो ऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्योह र्वसश्रयाः।। अर्थ : वात, पित्त एवं कफ ये तीन दोष शरीर में जाने जाते है। ये दोष यदि विकृत हो जायें तो शरीर को हानि पहुंचाते हैं, और मृत्यू का कारण बन जाते : हैं। यदि ये वात, पित्त एवं कफ सामान्य रूप से सन्तुलन में रहें तो शरीर की सभी क्रियाओं का संचालन करते हुये शरीर का पोषण करते है यद्यपि ये वात, पित्त, कफ शरीर के सभी भागों में रहते हैं, लेकिन विशेष रूप से वात नाभि के नीचे वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में, कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में रहता है। वयो ऽ होरात्रिभुक्तानां तेडन्तमध्यादिगाः क्रमात् । अर्थ : आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। . युवा अवस्था में पित्त का असर होता है। बाल्य अवस्था में कफ का असर होता है। इसी तरह दिन के प्रथम पहर अर्थात सुबह के समय कफ का प्रभाव । होता है। दिन के मध्य में पित्त का प्रभाव होता है। दिन के अन्त में वात का प्रभाव होता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। विश्लेषण : जब व्यक्ति बाल्य अवस्था में होता है, उस समय कफ की प्रधानता होती है। बचपन में मुख्य भोजन दूध होता है। बालक को अधिक चलना-फिरना नहीं होता है। बाल्य अवस्था में किसी भी तरह की चिन्ता नहीं होती है। अतः शरीर में स्निग्ध, शीत जैसे गुणों से युक्त कफ अधिक बनता है। युवा अवस्था में शरीर में धातुओं का बनना अधिक होता है, साथ की रक्त का निर्माण अधिक होता है। रक्त का निर्माण करने में पित्त की सबसे बड़ी भूमिका होती है। युवा अवस्था में शारिरिक व्यायाम भी अधिक होता है। इसी कारण भूख भी अधिक लगती है। ऐसी स्थिति में पित्त की अधिकता रहती है। युवा अवस्था में पित्त का बढ़ना बहुत जरूरी होता है। यदि पित्त ना बढ़े .. 5
SR No.009376
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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