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________________ करता है। चोरडियाजी ने आधारभूत मुद्दे.उठाए हैं, जैसे स्वास्थ्य की भारतीय शास्त्रीय . परिभाषा है--- स्व+स्थ अर्थात स्वयं में स्थित होना । मानव अपनी मौलिक,संरचना से विचलित या विकृत होते ही रोगी हो जाता है, इसलिए किसी भी रोग का साध य बाहर नहीं अपने भीतर है। भीतर क्या है? हमारी चेतना, प्राणशक्ति जो कभी आरोपित नहीं की जा सकती। अन्तश्चेतना की अक्षुण्णता तो संयम-नियम पर निर्भर है। शरीर इस चेतना का धारक या कवच मात्र है। . हम विश्रृंखलित शरीर से भी अन्तश्चेतना के बिखराव या क्षरण को रोक सकते हैं किन्तु किसी भी रोग को शामित करते समय हमें सम्पूर्ण शरीर को एक इकाई मानना पड़ेगा। जब सृष्टि सापेक्षित है तो शरीर के अंग-प्रत्यंग और उनकी संवेदनाएँ तो अनन्य रूप से सापेक्षित है। रोग एक लक्षण मात्र है भीतर की विचलन का। जैसे ज्वर या शिरोवेदना अथवा पेटदर्द अपने आप में कोई रोग नहीं, ये सभी हमारे अप्राकृतिक जीवन से क्षरित अन्तश्चेतना,या प्राणशक्ति के उभार है। - अपराध विज्ञान यह मानता है कि दो व्यक्तियों के अंगूठे के निशान एक जैसे नहीं होते। होम्योपैथी की नई खोज यह स्वीकार करती है कि जैसा पीपल का एक पत्ता है वैसे उस वृक्ष पर तो क्या समग्र सृष्टि में अगणित पीपलों का कोई पत्ता नहीं है तब दो मानव एक जैसे कैसे हो सकते हैं? जब दो व्यक्ति शारीरिक संरचना और मानसिकता की दृष्टि से भिन्न हैं तो उनके लिए एक दवा, एक गोली या एक-सा उपचार उचित कहाँ? अब विज्ञान भी मानने लगा है कि डी.एन.ए के . .. विश्लेषण अनुसार प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है। . . भारतीय उपनिषदों में लिखा है - "अनाद्वै प्रजा प्रजायन्ते ।” अन्न से ही प्रजा उत्पन्न होती है। “अन्नंहि भूतानां ज्येष्ठम् अन्न प्राणियों का ज्येष्ठ है अर्थात .. वह सब प्राणियों में पहले उत्पन्न हुआ। “तस्मात्सर्वोषिधमुच्यते” इसलिए वह (अन्न) सर्व औषधि है। मासांहार तो भयानक विष है। फिर पशु-पक्षियों की हिंसा से सृष्टि में एक और प्रचण्ड उपद्रव होता। जब हम शब्द को अक्षुण्ण मानते हैं जो तत्काल सम्पूर्ण पृथ्वी में व्याप्त हो जाता है तो हत्या किए जाने वाले पशु-पक्षियों की कराहे क्या ब्रह्माण्ड को आन्दोलित नहीं करेगी? आइन्स्टीनं जैसे वैज्ञानिक ने माना है कि हिंसा करने से मानव समुदाय संवेदन शून्य होता जा रहा है। इस अमानवीकरण के कारण हम महायुद्धों में करोड़ों व्यक्तियों की हत्या करने के साथ अपनी विपुल प्राकृतिक सम्पदा का हनन करते है। हिंसा मानव स्वभाव नहीं है। जब स्व+भाव नहीं रहेगा तो कोई स्व+स्थ कैसे रहेगा। चोरडियाजी ने परम विज्ञान के इस सूत्र को सरल भाषा में सम्प्रेषित किया है इसी तरह एक दर्शन है स्वावलम्बन का जो भी स्व+ अवलम्बन से बना है। यदि हमें 'स्व' आलम्बित होंगे। बाह्य उपचार वे ही सार्थक . है जो हमें अपने मौलिक प्राकृतिक स्वरूप में स्थित रखे। इस पुस्तक की गरिमा ।
SR No.009375
Book TitleSwadeshi Chikitsa Aapka Swasthya Aapke Hath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChanchalmal Choradiya
PublisherSwaraj Prakashan Samuh
Publication Year2004
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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