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________________ मंत्र अधिकार मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर गुरुपदेशादिह मंत्रबोधः प्रजायते शिष्यजनस्यसम्यक् । तस्माद्गुरुपासनमेव कार्य, मंत्रान्बुभुत्सोर्विनयेन नित्यम् ॥ अर्थ- प्रत्येक मनुष्य को पहले किसी योग्य गुरु के चरणों में बैठकर शिष्य बनने की योग्यता प्राप्त करनी चाहिये और फिर गुरु की आज्ञा पाने पर मंत्र की आराधना में हाथ लगाना चाहिए। शिष्य को आदि से अन्त तक तन-मन और धन से सेवा करते हुए विनय करते रहना चाहिए। क्योंकि मंत्र विधि में सब आपत्तियों से प्राणों की रक्षा करने के कारण गुरु ही माता, गुरु ही पिता और गुरु ही हितकारी है। इसके अतिरिक्त साधक के योग्य उत्तम उपदेश देने के कारण गुरु ही स्वामी, गुरु ही भर्ता, गुरु ही विद्या, स्वर्ग और मोक्ष का दाता है तथा गुरु ही मित्र होता है। शिष्य को गुरु के उपदेश से ही भली प्रकार मंत्र का ज्ञान होता है। अतः ज्ञान की इच्छा रखने वाले को सदा ही विनयपूर्वक गुरु की उपासना करनी चाहिए। मंत्र गुरु से ही ग्रहण करना चाहिए।और भी कहा है ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति,पूजा मूलं गुरुः पद्म। मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं ,मोक्ष मूलं गुरुः कृपाः॥ गुरु से ही मंत्र ग्रहण का विधान मंत्र को कभी भी देख - सुनकर या अपनी इच्छा से कभी आरम्भ न करें अन्यथा उससे अनर्थ होता है। अतएव साधक गुरु के मुख से ही मंत्र को लेकर सिद्धि के लिए विनयपूर्वक जपें। शिष्य कलिंग फल, वृताक, वरकंज, बैंगन, लहसुन, पुराना अनाज, दूध और घी आदि कभी न खावें एवं सप्त व्यसन (जुआ, मांस, शराब,शिकार,वेश्यागमन,चोरी,परस्त्री सेवन )से दूर रहें। मंत्र गुरु के दिये जाने पर विशेष गुणकारी होता है। अन्यथा देवता अनर्थ करते हैं और मंत्र का फल भी कुछ नहीं होता। मंत्र छः कानों में जाने से छिन्न-भिन्न हो जाता है, इसलिए एकांत में ही गुरु शिष्य को मंत्र का उपेदश करें। गुरुवत् शिष्य भी परोपकार के अर्थ उपदेश दें। किन्तु प्रगट रूप से इस ग्रन्थ में लिखा मिल जाने पर भी स्वयं न लेकर गुरु के द्वारा ही मंत्र लेकर सिद्ध करें। मंत्राराधना में दिशा बोध १. पूर्व यमान्तक मृत्यु का अन्त करने वाली २. दक्षिण प्रज्ञान्तक बुद्धि का अन्त करने वाली ३. पश्चिम दिशा पद्यान्तक- हृदय को नष्ट कारक ४. उत्तर विघ्नान्तक विघ्नों का अन्त करने वाली। (प्र. र. ५४०) पूजा हेतु दिशा बोध पूर्व- शान्ति पुष्टी, दक्षिण- सन्तान अभाव, पश्चिम- संतान विच्छेद, उत्तर-__धन लाभ,
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
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