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________________ साधक की सूक्ष्मतर और अव्यक्त काम सम्बन्धी वासना जिसे वेद कहते हैं, समूल नष्ट हो जाती है। नवमें गुणस्थान के प्रारम्भ में अधिकतम 22 और अतं में मात्र 18 कर्म प्रकृतियों के बंध की सम्भावना रहती है। ज्ञानावरणीय-5, दर्शनावरणीय-4, वेदनीय की- 1, (सातावेदनीय) मोहनीय की-1, (सूक्ष्म लोभ), नामकर्म की-2, गोत्रकर्म की-1, तथा अन्तराय की-5,।सत्ता की अपेक्षा से आरम्भ में 138 तथा अतं में 103 कर्मप्रकृतियों की सत्ता शेष रहती है। उदय और उदीरणा की अपेक्षा से पूर्व गुणस्थान की उदय योग्य 72 कर्म प्रकृतियों में से हास्याष्टक के कम होने से 66 तथा उदीरणा की अपेक्षा 63 कर्म प्रकृतियों की उदीरणा (वेदनीयविक और मनुष्य आयु की उदीरणा इस गुणस्थान में सम्भव नहीं होती)। 10- सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान व कर्म सिद्धान्तइस गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ के शेष अंश का उपशम या क्षय करता है तथा परिणाम स्वरूप क्रमशः 11 वें गुणस्थान या सीधा 12वें गुणस्थान को स्पर्श करता है। क्षायिक श्रेणी का जीव यहां सारी कर्मप्रकृतियों का क्षय कर लेता है। सूक्ष्म लोभ के रहते आत्मा का यथाख्यात चारित्र नहीं होता है। इस गुणस्थानक की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। सूक्ष्मश्चासौ साम्परायश्च सूक्ष्मसाम्परायः। सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। धूदकोसुं मयवत्थं होहि जहा सुहमारायसंवृत्तं। एवं सुहम कसाओ सुहम सरागोत्ति णा दव्वं।।59।। गो. जी जिस प्रकार धुले हुये कोसू भी रेशमी वस्त्र में सूक्ष्म हल्की लालिमा शेष रह जाती है उसी प्रकार जो जीव अत्यन्त सुक्ष्म राग अर्थात् लोभ कषाय से युक्त होता है उसको सूक्ष्साम्पराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती कहते हैं। इस गुणस्थान में 17 कर्म प्रकृतियों का ही बंध सभंव है। ज्ञानावरणा.की-5, दर्शनावरण की -4, वेदनीय की-1, नामकर्म की एक, गोत्र की-2 तथा अन्तराय की-51 सत्ता की अपेक्षा से अधिकतम -148, न्यूनतम उपशम श्रेणी में 139 और क्षपक श्रेणी में192 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है। उदय की अपेक्षा से-60 और उदीरणा की अपेक्षा से57 कर्म प्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है।(वेदनीयद्विक और मनुष्याय) 11. उपशान्तमोह(उपशान्त कषाय वीतरागछदमस्थ )गणस्थान व कर्म सिद्धान्तमात्र उपशम श्रेणी का जीव ही यहाँ दसवें गुणस्थान से पहुँचता है। कषायों के उपशम होने से आत्मा निर्मल बन जाती है। ठीक उसी प्रकार उस शांत सरोवर के निर्मल जल की तरह जिसकी मिट्टी तल में बैठ गई हो। किन्तु यह शान्ति अति अल्प समय (अन्तर्मुहूर्त) की होती है। यहाँ से पतन होकर जीव प्रथम गुणस्थान तक पहुंचता है। यदि उसकी इस गुणस्थान में रहते हुए मृत्यु हो जाती है तो वह अनुत्तर देवलोक में उत्पन्न हो जाता है। उपशान्त कषायो येषा ते उपशान्त कषायाः। इस गुणस्थान में आरोहण करने वाला साधक मोहनीय कर्म की सभी 28 कर्म प्रकृतियों का पूर्व उपशम करके अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त इस स्थिति में रहकर पुनः उपर्युक्त कर्म प्रकृतियों के वेग और बल पूर्वक उदय में आने से 94
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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