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________________ लव का एक मुहूर्त तथा 30 मुहूर्त का एक अहोरात्र (दिवस) होता है। 15 दिवस-रात्रि का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, 3 ऋतुओं का एक अयन व जो अयन का एक वर्ष होता है। इनमें क्रमशः दस - दस से गुणा करने पर दस, सौ, हजार, दस हजार व लाख संख्या प्राप्त होती है। इसको 84 से गुणा करने पर 84 लाख वर्ष फिर इसको 84 लाख से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसे पूर्व कहा जाता है। इस प्रकार एक पूर्व का परिमाण सत्तर खरब छप्पन अरब(वर्ष) होता है। पूर्व को 84 से गुणा करने पर प्राप्त गुणनफल नयुतांग कहलाता है। फुनः इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए 84 से गुणा करते जाने पर जो परिमाण प्राप्त होता है उसे क्रमशः एक नयुत, नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पद्मांग, पद्म, कमलांग, कमल, कुमुदांग, कुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, अट्टांग, अट्ट, अववांग, अवव, हुहूआंग, हुहूक, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत शीर्षप्रहेलिकांग तथा शीर्षप्रहेलिका कहते हैं। शीर्षप्रहेलिका का संख्या परिमाण 194 अंक है। इससे आगे की संख्या को उपमा से स्पष्ट किया जाता है- पल्योपम, सागरोपम आदि। इस गणना के फलस्वरूप जो संख्या मिलती है उसे संख्यात काल तथा इसके पश्चात् के काल को असंख्यात कहा जाता है। पल्योपम के तीन भेद किए गये हैं- 1. उद्धार (एक योजन लम्बा एक योजन चौड़ा तथा तीन योजन से अधिक परिधिवाला एक पल्य जिसमें बालाग्र ठसाठस भर दिये हों। इसके पुनः दो भेद हैं- बादर उद्धार पल्योपम अर्थात् एक समय में एक-एक बालाग्र निकालने पर जब वह खडडा खाली हो जाय तथा दसरा है सक्ष्म उद्धार पल्योपम- एक-एक बाल के असंख्य करें उसे पल्य में भरें, एक समय में एक-एक खण्ड निकालने में जो अवधइ लगे वह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है।), 2. अद्धा- सौ-सौ वर्ष अवधि में एक-एक बाल निकालने में जो समय लगे वह बादर अद्धा काल(संख्यात क्रोड वर्ष) है। तथा सौ-सौ वर्ष में एक-एक सूक्ष्म बालाग्र को निकालने में जो समय लगे वह सूक्ष्म अद्धा पल्योपम(असंख्यात क्रोड वर्ष) है। उपर्युक्त पल्योपम को दस कोटाकोटि से गुणा करने पर उद्धार सागरोपम प्राप्त होता है। दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक अवसर्पिणी(क्रमशः घटते रहने वाला काल, वर्तमान समय अवसर्पिणी काल का पंचम आरा है) तथा उतने ही परिमाण का एक उत्सर्पिणी काल(उन्नति काल) होता है। चारों गतियों का क्रम में अष्ट कर्मों का आयुष्य काल इस प्रकार है- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय व अन्तराय की 30 कोटाकोटि सागरोपम, नाम व गोत्र की 20 कोटाकोटि सागरोपम, आयु कर्म की 33 सागरोपम तथा मोहनीय कर्म की 70 कोटाकोटि सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति जीवसमास की गाथा 130 में बताई गई है। एकेन्द्रिय जीव असंख्य अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल एक ही काय(स्व काय) में रहते हैं। बस काय की उत्कृष्ट स्थिति दो सागर, मनुष्य - तिर्यञ्च- की अधिकतम 7-8 भव की स्वकाय स्थिति है। देव व नारकी स्वकाय मे पुनः जन्म नहीं लेते हैं। 3. क्षेत्र पल्योपम- आकाश क्षेत्र परिमापन हेतु इसका उपयोग किया जाता है। आकाश प्रदेश में जितने बालाग्र व बालाग्र-खण्ड : इनको खाली करने में लगने वाले समय को क्रमशः बादर व सुक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहा जाता
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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