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________________ 4-तदनन्तर इस क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही दर्शनावरण कर्म के निद्रा- निद्रा प्रचला- प्रचला स्त्यानगृद्धि इन तीन क्मों का क्षय हो जाता है। 5- पश्चात नवमें गुणस्थान में स्त्रीवेद आदि नपुसंकवेद कर्म का द्रव्य पुरुषवेद कर्म में संक्रमित हो जाता है। तत्पश्चातपुरुषवेद तथा हस्यदि छः ( हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) इन सात कर्मों का संक्रमण संज्वलन क्रोध कषाय कर्मों में होता है इस तरह नव नौ कषायों का क्षय हो जाता है ( शेष बची चारित्र मोहनीय कर्मों में से मात्र संज्वलन क्रोध,मान, माया, लोभ के क्षय का क्रम निम्नानुसार है)। 6- नवमे गुणस्थान में ही संज्वलन क्रोध कषाय का संक्रमण संज्वलन मान कषाय में होता है तदनन्तर संज्वलन मान कषाय का संक्रमण संज्वलन माया कषाय में हो जाता है और अन्त में संज्वलन माया कषाय का संक्रमण लोभ कषाय कर्म में हो जाने पर संज्वलन क्रोध,मान और माया एवं तीन कषायों का संक्रमण होकर क्षय हो जाता है। संज्वलन लोभ कषाय का संक्रमण नहीं होता है संक्रमित होने के लिए यहाँ (नवमे गुणस्थान के उपान्त्य समय में) अन्य चारित्र मोहनीय कर्म की सत्ता भी शेष नहीं रही है। चारित्र मोहनीय कर्म का संक्रमण अन्य सात कर्मों से भी नहीं होता है अतः संज्वलन लोभ कषाय कर्म का क्षय स्वमुख से ही होता है। पूर्वोक्त प्रकार क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही चारित्र मोहनीयकर्म की 20 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। 7- दसवें गुणस्थान के प्रथम समय से ही मात्र संज्वलन लोभ कषाय कर्म सूक्ष्म लोभ रूप से उदय में आ रहा है। बादरलोभ कषाय का सूक्ष्म कृष्टिकरण का कार्य नवमे गणस्थान में ही सम्पन्न हो गया था दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्म लोभ कषाय का भी क्षय हो जाता है। 8- अब बारहवें गणस्थान के प्रथम समय से ही मोहकर्म तथा मोहपरिणामों के अभाव से मुनिराज पूर्ण वीतरागी हो गये हैं अब मोहनीय कर्म के बिना मात्र तीन घातिया कर्मों की सत्ता शेष है दर्शनावरणीय नौं कर्मों में से छः कर्म ही शेष हैं, उनमें से निद्रा और प्रचला इन दो कर्मों का बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है। 9- क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय ज्ञानावरण कर्म की मतिज्ञानावरणादि 5 प्रकृतियाँ कुल मिलाकर 14 कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है। इस प्रकार संसार के सभी जीव अपने- अपने आध्यात्मिक विकास के तारतम्य के कारण गुणस्थान में बँटे हुए हैं इनमें से प्रारम्भ के चार गुणस्थान तो नारकी, देव, मनुष्य और त्रियंच सभी को होते हैं पाँचवा गुणस्थान केवल समझदार पशु पक्षियों और मनुष्यों के होता है पाँचवे से आगे सभी गुणस्थान आत्मध्यान में लीन साधु के ही होते हैं और उनमें से प्रत्येक गुणस्थान का काल एक अन्तर्मुहूर्त से कम होता है।
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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