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________________ सदठदि असब्भावं आणाण माणो गुरु णियोगा।।110.||ध. णो इदिएसु विगदो णो जीवे थाको तसे वापि। जो सहठदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।।111।।ध. जो सम्यग्दृष्टि जीव जिन वचनों में पूर्ण श्रद्धान करता है किन्तु गुरु वचनों के विपरीत अर्थ पर श्रद्धान कर लेता है वह इस असंयत गुणस्थान को धारण करने वाला होता है एसा जीव कालाब्धि के चलते जघन्य मुहूर्त में लेकर उत्कृष्ट -66 सागर पर्यन्त तक कर्मो की निर्जरा कर सकता है। आगे के सभी गुणस्थान सम्यग्दृष्टि के ही होते हैं। 1- सादि या अनादि मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे अविरत सम्यक्त्व गणस्थान में आ सकते हैं। 2- सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों का भी अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में गमन कर सकता है। 3- देशविरत गुणस्थावर्ती जीवों का अपनी पुरुषार्थ- हीनता से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में आना सम्भव है। 4- छठवें गुणस्थानवर्ती महा मुनिराज भी सीधे चौथे गुणस्थान में आसकते हैं। उपरिम गुणस्थानों से नीचे के गुणस्थानों में आये हुए मुनिराज तो तत्काल आत्माश्रित ध्यान मग्नता का विशेष पुरुषार्थ करके सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पहुँचकर प्रचुर स्व-संवेदन रूप विशिष्ट अनुपम आनन्द का अनुभव करते हैं। सम्यक्त्व के अन्य 10 भेद विसर्ग रुचि- परोपदेश के बिना अपनी आत्मा के यथार्थ ज्ञान से जीवादि तत्वों को जानने का ज्ञान विसर्ग रुचि है। उपदेश रुचि- छद्मस्थ व जिनोपदेश के दवारा जीव तत्त्व पर श्रद्धान उपदेश रुचि है। 3- आज्ञा रुचि- इसके कारण जीव राग द्वेष मोहादि के दूर होने पर वीतरागत्व में रुचि करता है। सूत्र रुचि- अंग प्रविष्टि व बाह्य सूत्रों को बढाता हुआ सम्यक्त्व की ओर जाता है। बीज रुचि- इस दशा में जीव का सम्यक्त्व भाव पानी में डाले हुए तेल की तरह एक पद से दूसरे पद में फैलता है। अभिगम रुचि- जिसे 11 अंग प्रकीर्ण दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान अर्थ सहित प्राप्त है यह अभिगम रुचि का परिणाम है। विस्तार रुचि- विस्तार रुचि से जिसे दूसरों के सभी भाव सभी प्राणी और नय विधि से उपलब्ध हैं। 8- क्रिया रुचि- इससे दर्शन. ज्ञान, चारित्र, नय, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति आदि क्रियाओं में साधक की वास्तविक रुचि होती है। संक्षेप रुचि- इसकी मात्र स्वल्प ज्ञान जनित श्रद्धान संक्षेप रुचि है। 10- धर्म रुचि- जिन श्रुत धर्म व चारित्र धर्म में श्रद्धा रखने वाला। 1 . 9.
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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