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________________ लिया हो। ऐसा इसलिए भी है कि मिश्र गुणस्थान सम्यक्त्व के बोध से च्युत होने अथवा उसमें संशय की स्थिति का परिणाम है। अतः संशय उसे ही हो सकता है जो मूल स्थिति से परिचित रहा हो। इस गुणस्थान में साधक सत्य-असत्य के मध्य झूलता रहता है। अनिश्चय के चलते मानसिक या वैचारिक संघर्ष के परिणामस्वरूप उपलब्ध दो परस्पर विरोधी स्थितियों में से किसी एक का चयन करता है। यहाँ यदि उसका झुकाव वासनात्मक पक्ष की ओर निर्णय करता है यो वह जीव पतित होकर अंततः प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पहुँचता है तथा इसके विपरीत यदि निर्णयात्मक रुझान नैतिक आचरण या सम्यक्त्व व्यवहार के अवबोधन की ओर दृढ़ होता है तो वह चतुर्थ गुणस्थान में चला जाता है। अन्तर्मुहूर्त के इस वैचारिक संघर्ष में यदि पाशविक शक्तियां इस पर हावी हो जाती हैं तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। कहा भी है- सम्ममिच्छाइट्ठी = सामन्त से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है दहिगुण मिक्वामिट्स पहुभावं व करिहुं सक्कं । एवं मिस्सयभावो सम्मसिच्चो न्ति णायब्बो ।।109 ध. ।। जिस प्रकार दही और गुड़ को मिलाकर उसका अलग-अलग अनुभव नही किया जा सकता, दोनों मिश्र भाव को प्राप्त हो जाते है उसी प्रकार एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के रूप मिले भाव को मिश्र गुणस्थान कहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति मंदिर में जाकर साम्य भाव से वीतराग प्रभु की उपासना करता है तथा वहीं एहिक सुख की प्राप्ति या सरागी देव देवियों के डर से उनकी भी उपासना करता है तो ऐसे व्यक्ति को सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाला कहा जा सकता है। इस गुणस्थान में जीव संयम को ग्रहण नही करता। मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं होता- कहा भी हैणय मरणेय संजममुवेई वह देश संजम वाणि । सम्मामिच्छादिट्ठीण उ मरणतं समुतघाओ ।। इस अवस्था में न जीव मरता है न संयम और न देश संयम को प्राप्त होता है तथा उसके मरणान्तिक समुदघात नहीं होता। अनिश्चय की अवस्था में तृतीय मिश्र गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती क्योंकि मृत्यु उसी अवस्था में संभव है जिसमें आयु कर्म का बन्ध हो सके. चूँकि इसमें आयु कर्म का बन्ध नहीं होता इसलिए मृत्यु भी नहीं होती। ऐसा उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्रजी ने गोम्मटसार में किया है। गीता में अर्जुन के चरित्र के माध्यम से अनिश्चयात्मक स्थिति का सटीक चित्रण देखने को मिलता है। औदायिक मिश्रकाय योग में उपशम सम्यक्त्व का सदभाव नहीं पाया जाता। इस गुणस्थानधारी की मान्यता न तो शुद्ध होती है और न ही अशुद्ध इस गुणस्थानधारी को सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों पर ही श्रद्धा होती है किसी एक के प्रति न तो राग होता है और न द्वेष मिश्र गुणस्थानधारी के न तो आयुष्य बंध होता है और न ही मृत्यु। मिश्र गुणस्थान की भाँति 12वें क्षीण मोह और 13वें सयोग केवली गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती। मिथ्यात्व सास्वादन और अविरत सम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानकों में से किसी एक को लेकर जीव परभव में जाता है। मिश्र गुणस्थान सादिसान्त है और इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। 32
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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