SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5- सासादन सम्यग्दृष्टि तो मिथ्यात्व गुणस्थान में आते ही हैं। इस गुणस्थान अवस्थित आत्माएं दो प्रकार की मानी गई हैं(अ) भव्य आत्मा- जो भविष्य में कभी न कभी यथार्थ बोध से युक्त होकर नैतिक आचरण पथ पर अग्रसर हो सकेगी। (आ) अभव्य आत्मा- जो कभी भी आध्यात्मिक पथ नहीं चल सकेगी अर्थात् अनन्त काल तक इसी स्थान में रहेगी। इसी संदर्भ में पं. सुखलालजी ने कहा है कि प्रथम गुणस्थान में ऐसी अनेक आत्माएं हैं जो अपने राग द्वेषादि के तीव्रतम वेग को थोड़ा दबाए हुए है वे सर्वथा लक्ष्यानुकूल न होते हुए भी अविकसित आत्माओं से बोध-चारित्र की दृष्टि से कुछ ऊपर या बेहतर होती हैं। तार्किक तौर पर इस धारणा को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है- हरेक गुणस्थान मे जीव तीन अवस्थाओं से होकर गुजरता है यथा- आरम्भिक, मध्य तथा अंतिम संक्रमण काल। अग्रिम गुणस्थान की ओर प्रयाण करते हुए जब जीव उसी गुणस्थान के अंतिम छोर पर होता है तो विपरीत परिणामों की तीव्रता घट जाती है तो उसे इसी गुणस्थान की आरम्भिक स्थिति में अवस्थित आत्माओं से प्रथक करती है।। मिथ्यात्व के लक्षणः मिथ्यात्व के लक्षण इस प्रकार कहे गए हैंमिथ्यात्व भाव- एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि ही हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय धारण करने के बाद वह पुरुषार्थ द्वारा इन पाँच मिथ्यात्व भाव (एकान्त मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व, विपरीत, विनय. एवं संशय मिथ्यात्व) का नाश कर लेता है। (अ) एकान्त मिथ्यात्व- पदार्थ अनन्त गुण-पर्याय वाला है ऐसा तत्वार्थसूत्र में भी उल्लेख है। गुण अनादि- अनन्त या नित्य है जबकि पर्याय अनित्य। पदार्थ के गुण पर्याय को लेकर ऐसी मान्यता रखना कि पदार्थ अनित्य ही है, असत् ही है, अनेक ही है आदि एकान्त मिथ्यात्व है। सम्यक्त्वधारी जीव मानता है कि पदार्थ कथञ्चित नित्य तथा कथञ्चित अनित्य एवं इसी क्रम में सत्-असत. एक एवं अनेक रूप हो सकता है। (ब) अज्ञान मिथ्यात्व- अज्ञानी जीव स्वर्ग-नरक व शुभाशुभ आदि में श्रद्धान नहीं रखता। (स) विपरीत मिथ्यात्व- कुछ भी करते रहो उस क्रिया पुरुषार्थ से शुभ फल मिल जायेगा अर्थात् मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी पुरुषार्थ से भी ( कर्मों से भी मुक्ति ) संभव है ऐसा श्रद्धान विपरीत मिथ्यात्व है। (द) विनय मिथ्यात्व- कुगुरू,कुदेव एवं कुधर्म की सविनय सेवा गुण के बजाय भेष-वेष को ही सच्चे पथ का अनुगामी मानकर अंध श्रद्धान करते रहना विनय मिथ्यात्व है। (य) संशय मिथ्यात्व- जिन वचन गुणस्थानक रूप सच्चे मार्ग के प्रति शंकाशील होना संशय मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के अन्य स्वरूप एवं भेद1. पुण्य भाव में धर्म मानना 2. कर्मोदय जनित पदगल अवस्थाओं को अपनी (जीवात्मा की) अवस्था मानना। 27
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy