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________________ जो द्रव्य की समस्त पर्यायो के साथ रहते हैं उसे ही गुण कहते हैं जैसे कि- न्याय.वी. की सूत्र संख्या 368,221 में बताया है कि "यावद द्रव्य भकिन सकल पर्यायानवर्तिनो गुणाः।" अणिमा महिमा, लधिमा आदि ऋद्धियाँ भी गुण कहे जाते हैं। "औदायिकोपशमिकक्षायिकक्षायो पशमिकपारिणामिकीइतिगुणाः ।“ध. 1/1/8/160/6/. आत्मा के कर्मों के उदय, उपशम, क्षय एवं क्षायोपशम तथा अपने चेतन स्वभाव के कारण उत्पन्न होने वाले औदायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक आदि इन पाँच भावों को ही गुण कहते हैं। सम्यग्दर्शनादि भी आत्मा के गण हैं संयमा संयमादि भी गण कहे गये हैं “सम्यग्दर्शनादयेगुणा" रा. वा. 6/10/6/4/38/25 जिनके द्वारा लिंग या द्रव्य की पहचान होती है, ऐसे लिंग या लक्षण को भी गुण कहते हैं। यहाँ पर आत्मा के उदयादि परिणाम जन्य गुणात्मक अवस्थाओं दशाओं या स्थानों को गुणस्थान कहते हैं। जदि दु लक्खिज्जते उदयादिसु संमवेहि भावेहि। जीवा ते गुण- सण्णा णिदिवटठा सवदरिसोहि।। संसार में जीव मोहनीय कर्म के उदय उपशम आदि अवस्थाओं के अनुसार उत्पन्न हुए परिणामों, भावों या अवस्थाओं से युक्त दृष्टिगोचर होते हैं, इन परिणामों को सर्वज्ञ देव ने गुणस्थान संज्ञा प्रदान की है। णिच्छो सासण मिक्खो अविरदसम्मो य देसविरतेय। विरदा पमत्त इयरो अयुव्व-अणियटठ सुहमो य।। उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलि जिणो अजोगि य। चउदस गुणताणाणिय कमोण सिद्धा य णायव्वा।। मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरति सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अर्निवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली, इस प्रकार क्रमशः चौदह गुणस्थान कहे गये हैं। दर्शनसार भाग-2 में इन गणस्थानों की संख्या 14 बताई गई है। उवसम्मताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स। शास्त्रीय विकास के क्रम में गूढ़ रहस्यों को समझने हेतु इन गुणस्थानों को निम्न नामों से भी जाना जाता है। मिथ्यात्व का आस्वाद---------------प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानक सम्यक्त्व का आस्वाद--------------चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक श्रावक धर्म आस्वाद-----------------पंचम देशविरत गुणस्थानक साधु धर्म स्वीकार-------------------षष्ठं सर्वविरत(प्रमत्त संयत) गुणस्थानक अप्रमाद भाव आस्वाद----------- -सप्तम अप्रमत्त संयत गुणस्थानक उपशम श्रेणी आरूढ़----------- -अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थानक
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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