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________________ यापन के दायित्व निर्वाह में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार से यह पाँचवे देशविरत गुणस्थान की आरम्भिक स्थिति की पूर्व तैयारी से सरोकार रखता है। (2) गृहस्थ आश्रमयह आश्रम एक सद्-गृहस्थ के रूप में अपने नियत दायित्वों से जुड़ा है। गृहस्थी का उपयोग करते हुए भगवद भक्ति को न विसराना, उचित-अनुचित के भेद को सदैव अपने व्यवहार में अमली बनाना तथा इस प्रकार से कार्य करना जिससे दूसरों का नुकसान न हो यही गृहस्थाश्रम की विशिष्टताएं हैं। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए आत्म चिन्तन को न भूलना और भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति ममत्व इतना न बढ़ा लेना कि जिससे उसके न होने पर दुख व होने पर अतिरेक खुशी का अहसास हो। गुणस्थान की स्थितियों के संदर्भ में ग्रहस्थाश्रम पाँचवे गुणस्थान तक ही श्रावक को ले जाता है। (3) वानप्रस्थ आश्रमयह आध्यात्मिक विकास यात्रा का पूर्वार्ध मुकाम है। गृहस्थाश्रम के पश्चात् व्यक्ति को इच्छा या इन्द्रिय निरोध करना होता है। जिस प्रकार ब्रह्मचर्य आश्रम सद ग्रहस्थ का जीवन जीने हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य करता है ठीक उसी प्रकार वानप्रस्थ आश्रम वैराग्य की परिणति की ओर पहला कदम है जिसमें ग्रहस्थ उत्कृष्ट श्रावक बनकर शुभाचरण के स्थान पर अब शुद्धाचरण का अभ्यास करने लगता है। अपना ममत्व संसारी वस्ततुओं से हटाने लगता है। ग्रहस्थी में रहते हुए भी ग्रहस्थ न होने का अहसास ही वानप्रस्थ आश्रम की दशा है। जिस प्रकार छः खण्ड के चक्रवर्ती महाराज भरत को घर में ही वैरागी कहा जाता था। वे संसार में रहते हुए ब्रह्मज्ञान के साधक थे। इसलिए यह भी कहा जाता है कि इस विरक्त भाव के चलते ही उन्हें कपड़े उतारते ही केवलज्ञान हो गया था। द्रव्यलिंगी गुणस्थानक अवस्थाओं के आधार पर तो वानप्रस्थ आश्रम पाँचवे गुणस्थान का उत्तरार्ध व छठवें गुणस्थान के पूर्वार्ध के समकक्ष है किन्तु यहि महाराज भरत का ही उदाहरण लें तो गुणस्थान की भावलिंगी अवस्थाओं में ये 10 से 12 वें गुणस्थान तक की स्थिति है। 4- संन्यास आश्रमसंन्यास का सामान्य शब्दार्थ है प्रकट और अप्रकट वस्तुओ में मोह या ममत्व रहित न्यास (Trusteeship) भाव। लाभ-हानि, राग-द्वेष जैसे विकारों से परे होकर अपनी आत्मा के चिन्तन में मगन होता है। वह मानव जीवन का अंतिम एवं सर्वोत्कृष्ट आश्रम है संन्यास। सांसारिक वृत्तियों का पूर्ण निरोध की साधना इस आश्रम में रहकर की जाती है। मोह-माया व राग-द्वेषादि से दूर वह परमात्म प्राप्ति का पुरुषार्थ एकाग्र होकर करता है तथा परम सिद्धि को प्राप्त करता है। संन्यास आश्रम छठवें गुणस्थान से आगे के समस्त गुणस्थानों का 162
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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