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________________ योग दर्शन में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँयोग साधना का अंतिम लक्ष्य है। चित्त निरोध अर्थात् (मन) योगिक चंचलता (मन,वचन,काय) को काबू में रखना ही योग निरोध है। इसलिए योग भी चित्त का धर्म है। दुःख और व्याकुलता से मुक्ति एवं शाश्वत सुख की अनुभूति हेतु इसका नष्ट होना अपरिहार्य है। "चित्त में सत्व- रजत-तमस इन तीन गुणों की विद्यमानता रहती है।" वास्तव में यह अस्थिरता राग-द्वेषादि, संकल्प- विकल्प के चलते उत्पन्न होती है। चित्त की विशष्टता को उसकी पाँच अवस्थाओं अथवा भूमियों के माध्यम से समझा जा सकता है(1) मूढ़ अवस्था- यह तमोगुण प्रधान अवस्था है जहाँ अज्ञान और आलस्य का साम्राज्य होता है। ऐसा जीव अधर्म व अवैराग्यादि विषयों में प्रवृत्त होता है। जैन दर्शन इसे मिथ्यात्व के रूप में वर्णित करता है। (2) क्षिप्त अवस्था- यह रजोगुण प्रधान अवस्था है जिसमें भौतिकता के प्रति अनुराग, आसक्ति या मूर्छा होती है, विषय-वासना युक्त चंचलता होती है तथा जीव वासनाओं का दास होने से दुःखी रहता है। यह मिश्र गुणस्थान से तुलनीय है। (3) विक्षिप्त अवस्था - चित्त की थोड़ी कम चंचलता ही विक्षिप्त चित्तमय है। इसका आशय भोगों से विरति या निष्क्रियता अथवा प्रयास पूर्ण अल्पता की आरम्भिक स्थिति से लिया जा सकता है जहाँ तमो और रजोगुण का सत्वगुण से संघर्ष आरम्भ होता है। साधक तमो-रजो प्रवृत्तिपरक भावों को दबाने का प्रयास करता है जबकि ये शुभा-शुभ कर्म उसे विक्षोभित करते हैं। इसकी आरम्भिक दशा की तुलना सम्यगदृष्टि गुणस्थान से तथा उत्तरार्ध को पाँचवें और छठवें गुणस्थान के समीप माना जा सकता है। बौद्ध परम्परा में यह स्रोतापन्न भूमि के निकट प्रतीत होती है। (4) एकाग्र अवस्था - रजो-तमो वृत्तियों का निरोघ करके सात्विक वृत्तियों की प्रधानता से सदैव एक ही विषय का ध्यान एकाग्र चित्त कहलाता है इससे रजो तथा तमो वृत्ति का निरोध होता है लेकिन सात्विक वृत्ति शेष रहती है। इसी में संप्रज्ञात योग होता है। यह चेतना की पूर्ण जाग्रत अवस्था है जहाँ वासनाओं को क्षीण (जीर्ण-शीर्ण) कर साधक सातवें से 12वें गुणस्थान समकक्ष तक की विकास यात्रा तय करता है। (5) निरुद्ध अवस्था - इस भूमि में साधक चेतन स्व-स्वरूप में स्थिर होकर हर तरह के परिणामों का पूर्ण निरोध करता है। त्रिविध वृत्तियों का निरोध करने पर जब चित्त संस्कार मात्र अवशिष्ट रहता है तब निरुद्ध कहा जाता है। 13वें और 14वें गुणस्थान की विशिष्टताओं के समकक्ष इसे रखा जा सकता है। 158
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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