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________________ (अ) गीता और गुणस्थान सिद्धान्त भूमिका "किसी ग्रंथ का मनुष्य के मन पर कितना अधिकार है, उसे उस ग्रंथ की कसौटी समझा जाय तो कहना होगा कि गीता भारतीय विचारधारा में सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रंथ है"। - डॉ. राधाकृष्णन गीता हिन्दू साहित्यक संस्कृति का एक प्रमुख ग्रन्थ है। यह समुच्चय है व्यक्तित्व, श्रद्धा, बुद्धि, कर्म, नैतिक आचरण एवं आत्म विशुद्धि के अवबोधन का। इसमें जीवन दृष्टि और आचरण के वे विश्लेषणत्मक आयाम निहित हैं जो सांसारिक जीव की स्थिति व गति का दिग्दर्शन कराते हैं। जीव के आध्यातिमक अथवा आत्मिक उन्नति की मंजिल तीन पायदानों के आसपास जीव रहता है। वह वर्तमान में कहाँ पर है और उसका आत्म विशुद्धि पर क्या प्रभाव होता है इसका विवेचन गीता में मिलता है जिसे जैन दर्शन के गुणस्थान अभिगम में विश्लेषित किया है। गीता में वर्णित ये तीन चरण निम्नवत् रूप स्थिति को समझाते हैं- जीव शुद्धाचरण का ज्ञान ही न रखता हो, उसे अच्छे बुरे का ज्ञान तो हो किन्तु शुद्धाचरण में लीन न हो तथा अंतिम स्थिति जिसमें विशुद्ध ज्ञान व आचरण का धारक होकर आत्मिक अनुभूति की ओर बढ़ाता हो। गीता में सैद्धान्तिक तौर पर तमोगुण- रजोगुण- सत्वगुण तीन स्थितियों के माध्यम से संसारी जीव की आध्यात्मिक विकास की कसौटी का विधान किया गया है। ये तीनों स्थितियाँ विषय भोगों में आसक्ति, कर्म प्रधानता और नैतिक रूप में त्रिगुण सिद्धान्त के रूप में मान्य हैं। इस अंतिम चरण के बाद समस्त गुण स्थितियों की शून्यता होने पर निजात्म या मोक्ष की प्राप्ति की अनुभूति होती है। डॉ. प्रमिला जैन ने अपनी प्रकाशित शोधकृति षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन (आध्यात्मिक विकासक्रम) (के पृष्ठ सं. 247-255 ) में गीता और गुणस्थान के तुलनात्मक विश्लेषण में स्पष्ट किया है कि गीता और आध्यातमिक विकास की चार अवस्थाएँ.(गीता 2 | 43 | 44) तमोगुण→ रजोगुण - सत्व गुण गुणातीत अवस्था। गुणस्थान में वर्णित 14 स्थितियों की यदि इन उर्युक्त तीन अवस्थाओं से तुलना करें तो यह कहा जा सकता है प्रथम, द्वितीय व तृतीय गुणस्थान(मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र) में तमो व रजो गुण अवस्थाऐं रहती हैं। चौथे से सातवें गुणस्थान (सम्यकत्व,देशविरत, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत) तक सत्व गुण अवस्था रहती है। गुणातीत अवस्था आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक हो सकती है। 135
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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