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________________ 4. विस्थापन(Displacement)- इसे आरोपण पद्धति के रूप में भी जाना जाता है। इसमें संवेगों को अन्य तथ्यों पर आरोपित किया जाता है। 5. प्रतिगमन(Regression)- जब संवेगों का आरोपण असामान्य व्यवहार से होता है तो वह अन्य वस्तु को नष्ट कर तनाव कम कर लेता है यह प्रतिगमन क्रिया है। 6. संवेगात्मक रेचन(Emotional Catharsis)- इसमें शामित (Repressed) संवेगों से मुक्ति पाने का प्रयास किया जाता है। स्वाध्याय, पठन-पाठन व मंदिर आदि में जाना तथा शारीरिक क्रियाओं के द्वारा इसे संभव बनाया जाता है। समीक्षासंवेग या वैराग्य आत्मिक उन्नति के उद्दीपक कहे जाते हैं। शल्य भी मन का विषय है इसके अभाव में केवल ज्ञान संभव नहीं है। शल्य तीन प्रकार की होती है1. कपट, ढोंग, ठगीवृत्ति 2. भोगों की लालसा का निदान तथा 3. मिथ्यादर्शन। ये मानसिक दोष मन और तन दोनों को कुरेदते रहते हैं। जो शल्य रहित है वही व्रती हैं उसके बाद भौतिक-अभौतिक पदार्थों के प्रति मूर्छा या आसक्ति समाप्त हो जाती है। आत्मा अमूर्तिक चैतन्य रूप एवं उपमा रहित है। क्रोधादि संवेगों की उपस्थिति से कषायों का वेग तीव्र होता है। इसीलिए मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव मानसिक दृष्टि से कषायादि से पीड़ित रहता है और वासनात्मक प्रवृत्तियों के हावी रहने से शुद्धाचरण से विलग रहता है। संवेगों की तीव्रता व मनोवृत्तिक झुकाव(वासनात्मक आसक्ति) तथा दृढ़ता का अभाव (सम्यकत्वी अस्थिरता) होने से जीव सम्यकत्व गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान तक पहुँचता है। मिश्र गुणस्थान में जीव की अधर-झूल जैसी अनिर्णय व अनिश्चय की स्थिति रहती है। यह मन की चंचलता ही तो है जो सम्यकत्वी शिथिलता पैदा करती है। मनोविश्लेषण स्पष्ट करता है कि यहाँ वासनात्मक इड (id) और आदर्श (Super ego) के मध्य आन्तरिक संघर्ष चलता रहता है हालांकि इसकी अवधि अन्तर्मुहुर्त प्रमाण (48 मिनट) ही होती है फिर भी इस दौरान यदि वासनात्मक पक्ष प्रबल हो जाता है तो वह मिथयात्व गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है तथा आदर्श की ओर रुझान होने पर वह पुनः सम्यकत्व में लौट जाता है। व्यक्तित्व विकास की दृढ़ता व परिपक्वता उसके संघर्ष विजय में अहम् भूमिका निभाती है। तृतीय गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती जैन दर्शन में उल्लखित इस विधान का भी मनोवैज्ञानिक आधार है यथा डॉ. कलघाटगी के मतानुसार- मृत्यु और संघर्ष की चेतना दोनों का सह-अस्तितव संभव नहीं है। मृत्यु के समय में जीव मिथ्यात्व या सम्यकत्व में से किसी एक स्थिति को प्राप्त होता है। इस गुणस्थान की अल्पावधि का भी यह एक तार्किक आधार हो सकता है कि सामान्यतया कोई भी व्यक्ति लम्बे समय तक संशय या अनिश्चय की 130
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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