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________________ शान्ति की दिशा में अहम हैं। यही भय उसे आध्यात्मिक पथ का साधक बनाने में क्रियाशील बनाता है। 2. भय (Fear)- भय पलायन मूलवृत्ति का संवेग है। भय के कारण ही व्यक्ति आत्म-विश्वास खो बैठता है वहीं परिपक्वता इस संवेग के प्रभाव को कम करती है। प्रशंसा और पुरुस्कार भी भय को शिथिल कर दते हैं। भय कभी-कभी इन चीजों को लेकर होता है जिनका अस्तित्व ही नहीं होता। जैन दर्शन की दृष्टि से देखें तो यह संवेग जीव को पाप वृत्तियों से दूर करता है और शनैः - शनैः शुभाशुभ कार्यों से शुद्धाचरण में रत करता है। भय से मुक्ति(शिक्षण द्वारा) अनिवार्य है। 3. क्रोध या आक्रमकता (Anger or combat)- किसी क्रिया की संतुष्टि में जब बाधा उत्पन्न होती है तब सामान्य मनुष्य स्वाभाविक रूप से पशुवत होकर क्रोध का आश्रय लेता है। क्रोध का परिणाम लड़ाई तथा शारीरिक-मानसिक क्षति पर आकर पूर्ण होता है। प्रायः ईर्ष्या करना, तंग करना, झगड़ा करना एवं वैर भाव आदि आक्रमक व्यवहार के परिणाम हैं। क्रोध का आन्तरिक एवं बाह्य प्रकटीकरण जीव की गति प्रथम तीन मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में कराने का निमित्त बनता है, क्रोध का शमन जीव को 11वें गुणस्थान तक गति करा सकता है तथा क्रोध वृत्ति पर सम्पूर्ण नियन्त्रण उसे सम्यकत्व से ऊपर के गुणस्थानों में ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। 4. आत्म गौरव(Self-Assertion)-इसका सम्बन्ध आत्म प्रदर्शन की भावना से है। यह मूल प्रवृत्ति के साथ जुड़ा संवेग है। इसके चलते जीव दूसरों का ध्यान अपनी ओर केन्द्रित करने हेतु तरह-तरह की प्रवृत्तियों व आडम्बरों को आकार देता है। यह वास्तव में स्व के महत्व के प्रदर्शन जैसा है। सामान्य मानव यदि आत्म प्रदर्शन की भावना का दमन करता है तो उसमें आत्महीनता व दीनता आयेगी तथा चरित्र व व्यक्तित्व का विकास रुक जायेगा। इस तरह से कहा जा सकता है कि यह संवेग जीव की आध्यात्मिक उन्नति व अवनति का कारक है। 5. रचनात्मकता (Constructiveness)- किसी वस्तु की रचना व विद्यमानता की स्थिति में परिवर्तन करने की वृत्ति का उदय रचननात्मक संवेग का परिणाम है। इसका उद्देश्य सतत कुछ न कुछ करते हुए अन्तर्निहित शक्तियों का विकास करना है। जैन दर्शनयत आध्यात्मिक विकास क्रम में यह संवेग पुरुषार्थपूर्ण प्रयास व सकाम निर्जरावृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है। 6. प्रेम (Love)- यह एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक संवेग है। इसके परिणाम स्वरूप जब व्यक्ति किसी के प्रति आसक्ति या प्रेम रखता है तो आनन्द की अनुभूति करता है। प्रेम संवेग में अतयन्त कम और अत्यधिकता दोनों ही स्थितियां घातक सिद्ध हो सकती हैं इसलिए दोनों के मध्य संतुलन अनिवार्य है। प्रेम एक जटिल संवेगात्मक अवस्था है यह स्वार्थमूलक व 128
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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