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________________ साधु परमेष्ठी- सम्यक्त्व चारित्र की आरम्भिक सीड़ी जहाँ जीव वैराग्य आदि भावों से शिक्षित होकर 11 प्रतिमायुत 28 मूलगुणधारी साधुपद को ग्रहण करता है। यह इण्टर के समकक्ष भावी आधार को मजबूत करती आरम्भिक अवस्था का सूचक है। इसकी तुलना चौथे-पाँचवें गणस्थानक स्थिति के साथ की जा सकती है। मुनि साधना को आगे बढ़ाते हुए 11 अंग व 14 पूर्वो का पाठी 25 मूलगुणधारी मुनि उपाध्याय परमेष्ठी बनता है स्नातक की भाँति। यह वात्सल्य भाव के साथ साधु परमेष्ठियों को अध्यापन कराता है। मनि साधना में परिपक्व होते हुए वह 36 मूलगुणधारी चार्य पद ग्रहण कर मुनि या साधु दीक्षा देने की योग्यता व दायित्व को ग्रहण करता है। स अवस्यता को नस्नातक समकक्ष समझा जा सकता है। आचार्य अपनी साधना को आगे बढ़ाते हुए घातिया कर्मों का नाश कर देते है और मोक्ष मार्ग के नेता कहलाते हैं। ये अरिहंत परमेष्ठी 46 मूलगुणधारी होते हैं। यह विकास की अंतिम पुरुषार्थ सिद्धि की अवस्था है जिसे विद्यावाचस्पति समकक्ष माना जा सकता है। जब अरिहंत परमेष्ठी योग निरोध के द्वारा देहातीत भाव से युत होकर परमसुख की सिद्धावस्था में अवस्थित हो जाते है तो उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहा जाता है। यह है साधकसाधना का लक्ष्यांकित मुकाम जहाँ ध्यान-ध्याता व ध्येय के मध्य कोई भेद नहीं रह जाता। ***** 114
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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