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________________ 67 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में दोनों का नाम दुषमा-दुषमा है, दोनों ही 21,000 वर्ष के हैं, दोनों में उत्कृष्ट आयु, उत्कृष्ट ऊँचाई आदि समान ही हैं; अतः समानता समझाने के लिये उपचार से छठे के बाद छठा कहा जाता है। इतना अन्तर तो है ही कि अवसर्पिणी के 21,000 वर्ष तक निरन्तर हास होकर अन्त में प्रलय होती है और उत्सर्पिणी के 21,000 वर्ष तक निरन्तर कुछ-कुछ उत्थान होता रहता है। क्या काल परिवर्तन होने से सब कुछ बदल जाता है ? नहीं, कालचक्र के अनुसार परिवर्तनशील इस जगत में सब कुछ बदल जाता हो - ऐसी बात नहीं है। बहुत कुछ है जो काल से अप्रभावित रहता है। _जीव कभी अजीव नहीं हो जाता तथा अजीव भी कभी जीव नहीं होता। कोई भी वस्तु अपने मूल स्वरूप को कभी नहीं छोड़ती। वस्तु का स्वभाव अपरिवर्तनशील है। अग्नि की उष्णता, नमक का खारापन, मिश्री की मिठास के समान ही जानना-देखना आत्मा का स्वभाव है, जो कि काल से अप्रभावित रहता है। स्वभाव के समान ही स्वरूप भी काल से अप्रभावित रहता है। जैसे - सच्चे देव, गुरु, धर्म का स्वरूप कभी नहीं बदलता। यद्यपि चौथे काल से पंचम काल में परिस्थितियाँ बहुत बदल जाती है, किन्तु सच्चे देव तो वीतरागी-सर्वज्ञ ही होते हैं। चौथे काल में धर्म अलग प्रकार का होता होगा और पंचम काल में धर्म अलग प्रकार का ? चौथे काल में मुनि और श्रावक का स्वरूप अलग प्रकार का होगा, पंचम काल में अलग प्रकार का? - ऐसा नहीं है। काल और क्षेत्र कोई भी हो स्वरूप कभी
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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