SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 55 होता है। सर्वप्रथम महागम्भीर, भीषण तूफान प्रारंभ होता है, जो वृक्षों एवं पर्वतों को चूर्ण कर देता है। आचार्य मानतुंग 162 कहते हैं कि कल्पान्तकाल मरुता चलिताचलेन अर्थात् ये कल्पान्त काल की हवायें अचल (पर्वत) को भी चलित कर देती है। ऐसे भयंकर तूफान के समय सभी प्राणी महादुःखी होते हुये सुरक्षा के लिये शरण खोजते रहते हैं, किन्तु उनमें से पृथक्-पृथक् संख्यात एवं सम्पूर्ण 72 युगल 63 ही गंगा-सिन्धु नदियों की वेदी और विजयार्द्ध वन के मध्य गुफाओं आदि में सुरक्षा पाते हैं। इन्हीं स्थानों पर दयालु देवों और विद्याधरों 104 द्वारा भी संख्यात मनुष्य एवं तिर्यंचों को सुरक्षित पहुँचा दिया जाता है। 49 दिन तक चलने वाले इस प्रलय के दौर में भयंकर गर्जना युक्त मेघों द्वारा सात-सात दिन तक निरन्तर क्रमशः बर्फ, क्षारजल, विषजल, धूम्र, धूलि, वज्र और अग्नि की वर्षा होती है, इससे भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित एक योजन वृद्धिंगत भूमि जलकर नष्ट हो जाती है । 185 आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा मान्य वर्तमान उपलब्ध दुनिया को जैन मान्यतानुसार आर्यखण्ड की इस वृद्धिंगत भूमि के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यह एक योजन अर्थात् लगभग 162. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक - 15 163. (1) पुहपुह संखेज्जाइं, बाहत्तरि सयल जुयलाई ' - तिलोयपण्णत्ती, 4 / 1568 (2) लोकविभाग, 5/160 164. 'देवा विज्जाहरया, कारुण्णपरा णराण तिरियाणं' - तिलोयपण्णत्ती, 4/1569 165. (1) तिलोयपण्णत्ती, 4 / 1570-1573 का सार (2) लोक विभाग, 5/161-163
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy