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________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में अवसर्पिणी का तीसरा काल (सुषमा-दुषमा) - यह काल जघन्य भोगभूमि का काल कहलाता है। इस काल में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों की परिस्थितियाँ हैमवत क्षेत्र एवं हैरण्यवत क्षेत्र नामक शाश्वत भोगभूमियों के समान होती है। यहाँ भी सम्पूर्ण कार्य कल्पवृक्षों से ही सम्पन्न होते हैं। __ तिलोयपण्णत्ती106 एवं आदिपुराण107 में इस काल का स्वरूप स्पष्ट करते हुये लिखा है कि सुषमा–दुषमा नामक यह काल दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। इसके प्रारंभ में मनुष्यों की ऊँचाई दो हजार धनुष (एक कोस), आयु एक पल्य और वर्ण प्रियंगु फल सदृश होता है। इस काल में स्त्री-पुरुषों के पृष्ठ भाग में चौंसठ हड्डियाँ होती हैं। यहाँ के मनुष्य एक दिन के अन्तराल से आँवले बराबर अमृतमय आहार का ग्रहण करते हैं। ___इस काल में जन्मे युगल का शैय्या पर अंगूठा चूसने में 7 दिन का काल व्यतीत हो जाता है। शेष परिस्थितियाँ - बैठना, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कला गुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता – इन सब अवस्थाओं में भी क्रमशः सात-सात दिन लगते हैं ।108 इस प्रकार इस काल में उत्पन्न हुये जीवों में मात्र 49 दिन में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की योग्यता हो जाती है। यहाँ सभी जीवों को अपने पुण्य प्रमाण कल्पवृक्षों से अनुकूलताओं 106. तिलोयपण्णत्ती, 4/407–410 107. आदिपुराण, 3/53-54 108. तिलोयपण्णत्ती, 4/411-412
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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