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________________ 3. काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में की योग्यता में तीन-तीन दिन व्यतीत होते हैं। इसप्रकार उत्तम भोगभूमि में जन्मे मनुष्य मात्र 21 दिनों में यौवन से परिपूर्ण०० होकर सम्यग्दर्शन प्राप्ति के योग्य हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन प्राप्ति के कारणों की चर्चा करते हुये आचार्य यतिवृषभ101 ने तीन कारण बताये हैं – (1) जाति स्मरण ज्ञान (2) देवों द्वारा प्रतिबोध (3) चारणऋद्धि धारी मुनिराज का सदुपदेश । ये सब उत्तम युगल पारस्परिक प्रेम में अत्यन्त मुग्ध रहा करते हैं, इसलिये उनके श्रावकोचित व्रत संयम नहीं होते।102 जैसे-जैसे सुषमा-सुषमा नामक प्रथम काल व्यतीत होता जाता है, वैसे-वैसे मनुष्य, तिर्यंचों का शरीर, आयु, बल, ऋद्धि आदि भी कम होते रहते हैं। इसप्रकार चार कोड़ाकोड़ी सागर में यह काल पूर्ण हो जाता है। हमने अतीत में अनंत बार इस प्रकार का काल सुख से दूर रहकर ही बिताया है। अवसर्पिणी का दूसरा काल (सुषमा) - यह काल मध्यम भोगभूमि का काल कहलाता है। इस काल में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों की परिस्थितियाँ हरि क्षेत्र03 एवं रम्यक् क्षेत्र नामक शाश्वत भोगभूमियों के समान होती हैं। 99. तिलोयपण्णत्ती, 4/383-384 100. 'दिवसैरेकविंशत्या पूर्यन्ते यौवनेन च।' - लोकविभाग, 5/25 (पूर्वार्द्ध) 101. तिलोयपण्णत्ती, 4/385 102. 'तेसुं सावय वद संजमो णत्थि' – वही, 4/390 103. 'शेषो विधिस्तु निश्शेषो हरिवर्षसमो मतः' - आदिपुराण 3/50
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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