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________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आयु का अपवर्तन नहीं होता।" इनका शरीर सप्त धातुमय होते हुये भी छेदा–भेदा नहीं जा सकता। अशुचिता से रहित होने के कारण उनके शरीर से मूत्र तथा विष्टा का आस्रव नहीं होता आदिपुराण के अनुसार उन लोगों को पसीना भी नहीं आता। यहाँ शरीर में रोग भी नहीं होते, कोई किसी का शत्रु नहीं होता, सिंह और हाथी भी साथ रहते हैं, लोगों का लावण्य रंग और विलास से परिपूर्ण वय और यौवन भी नष्ट नहीं होते। देखो ! पुण्योदय का यह ठाठ देखकर हमारा मन ललचाता है; किन्तु भाई ! हमने भी आत्मज्ञान के अभाव में इस पंच परावर्तन रूप संसार में परिभ्रमण करते हुये भोगभूमि में अनन्त बार जन्म लिया है। उत्तम, मध्यम और जघन्य सभी भोगभूमियों में हम अनन्त बार जन्म-मरण कर चुके हैं। अनेक बार भावलिंगी मुनिराजों को आहार दान देने के बाद भोगभूमि में जन्म लेकर भी यह जीव स्वयं सम्यक्त्व से शून्य रहा। वहाँ अनंत बार तीन पल्य की आयु तक बाह्य अनुकूलतामय जीवन भी पारमार्थिक सुख के बिना दुख से ही बीता। भोगभूमियों के सभी जीव स्वभाव से ही कोमल परिणामी होते हैं, इसलिये मरकर स्वर्ग में ही जाते हैं, इनकी स्वर्ग के सिवाय और कोई गति नहीं होती।1 यहाँ के मिथ्यादृष्टि 77. (1) तिलोयपण्णत्ती, 4/361 (2) तत्त्वार्थसूत्र, 2/53 (3) सर्वार्थसिद्धि, 2/53/365/ पृ. 148 78. तिलोयपण्णत्ती, 4/387 79. आदिपुराण, 3/31 80. आचार्य पुष्पदन्त कृत महापुराण, भाग-1, सन्धि-2/8, पृष्ठ--31 81. आदिपुराण, 3/43
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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