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________________ ५२८ श्रीदatकालिकसूत्रे वाले वाल चने आदिका बना हुआ तुप आदि जिसमें बहुत ही ऐसे (तथा) विरसं लवणादि रस सहित अशनादिको आहरे उपाश्रयमं लावे ||३३|| टीका -- स्यात् = कदाचित् एकः कथित् रसलोलुपी त्रिविधं पान - भोजनं लब्ध्वा भिक्षाचर्यायामेव यत्र कुत्रचिदलक्षितप्रदेशे भद्रकं भद्रकम् उत्कृष्टमुत्कृष्टं बहुविधानादिषु प्रशस्तं प्रशस्तमेव घृतपूराऽपूपादिकं भुक्वा विवर्णविकृतवर्ण वल्लचणकादिनिष्पनं तुपादिबहुलं विरसं लवणादिरसनर्जितमनादिकम् आहरेद= आनयेत् वसताविति शेषः ॥ ३३ ॥ एवं करणे किं प्रयोजनम् ? इत्याह- 'जाणंतु' इत्यादि । ૧ ५ ४ ५ १ ६ 3 मूलम्-जाणंतु ता इमे समणा, आययही अयं मुणी ૧ ૧. संतु सेवई पंत, गृहवित्त सुतोसओ ||३४|| و छाया --- जानन्तु तावत् इमे श्रमणाः आत्मार्थी अयं मुनिः । सन्तृष्टः सेवते मान्तं रूक्षवृत्तिः सुतोपकः ॥ ३४ ॥ वह ऐसा क्यों करता है ? इसमें कारण कहते हैं सान्वयार्थः - ता=प्रथम इमे= ये उपाश्रय में रहे हुए दूसरे समणा= साधु (मुझे इस प्रकार) जाणंतु=जानें कि अयं यह मुणी-साधु आय यही=मोक्षार्थी- आत्मार्थी है, संतुट्ठो जैसा मिला उसीमें सन्तोष करनेवाला लहवित्ती=सरस स्निग्धादि आहारकी अभिलापारहित सुतोसओ थोड़े आहारसे भी संतोषी है और पतंवासी कुमी तथा निस्सार अन्नादिका सेवई सेवन करता है ||३४|| कदाचित् कोई रसलोलुपी साधु विविध प्रकारका पान भोजन पाकर अच्छा-अच्छा भोजन भिक्षाचरीमें ही किसी एकान्त स्थान में खावे, और बाल चणक आदि अन्त-प्रान्त तथा विना नमक मसालेका ठंढा आहार उपाश्रयमें ले आवे ॥ ३३ ॥ ऐसा करनेका प्रयोजन कहते हैं-'जाणंतु' इत्यादि । કદાચિત્ કાઈ રસલેાલુપી સાધુ વિવિધ પ્રકારનાં પાન-ભાજન મેળવીને સારૂં સારૂ ભોજન ભિક્ષાચરીમાં જ કઇ એકાંત સ્થાનમાં ખાઈ લે અને વાલ ચણા આદિ અત-પ્રાંત તથા મીઠા-મરચા વિનાના નીરસ ઠંડા આહાર ઉપાશ્રયમાં सावे. ( 33 ) शोभ उश्यानु प्रयोजन हे छे. -जाणंतु प्रत्याहि. O
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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