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________________ ३९८ श्रीदशवकालिको द्वार-विपरम् , सन्धि-तस्करादिखातमित्तिमागं दयभवनानिमलस्थानानि, 'के. ति समुचये; नम्र विनियायेत्-सविशेष विलोकयेत् । यत एतानि (आलो. कादीनि) रावास्यानानि-साधोरापारविषयफसन्देवोत्पादकस्थानानि, से नातावेकवचनम् , अतस्तानि विवर्जयेत-विशेपेण परित्यजेत् ॥१५॥ मूलम्-रन्नो गिहवईणं च, रहस्सारखियाण य । संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवजए ॥ १६ ॥ छायाझो गृहपतीनां च, रहस्यमारक्षकाणां च । संक्लेशकरं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१६॥ सान्वयायः-रन्नो चक्रवर्ती आदि राजा महाराजाओंके च-तया गिहवईण शेठ आदि सद्गहस्योंके च और आरक्खियाण-नगरके रक्षक कोतवाल आदिके रहस्सं सलाह करनेके एकान्त स्थानको (साधु) दरओ-दूरबीसे परिवज्जए-त्यागे; (क्योंकि ऐसे) ठाणं-स्थान संकिलेसकरं असमाधिको पैदा करनेवाले होते हैं। भावार्थ-राजा आदिकोंके एकान्त स्थानकी तर्फ देखनेसे अथवा वहां जानेसे उनको साधुके पति क्रोध अश्रद्धा होना आदि अनेक दोषांकी संभावना है ॥१६॥ टीका:~ रनो' इत्यादि । राज्ञा चक्रवर्द्धचक्रिमभृतेः, गृहपतीनां गृहस्वा मिना श्रेष्ठयादीनाम् आरक्षकाणां नगररक्षिणां च रहस्य-रहसि-एकान्ते भव हुआ छेद-सन्धि) और उदकभवन अर्थात् परेंडा आदि की तरफ दृष्टि न डाले, क्योंकि ये शंकास्थान हैं, इनकी ओर देखनेसे लोगोंको साधुक चारित्रमें सन्देह उत्पन्न होता है, अतएव इन शंकास्थानोंका विशेष रूपसे परित्याग करना चाहिए ॥१५॥ 'रन्नो०' इत्यादि। जिस एकान्त भवनमें चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री, माण्डलिक आदि राजा, अष्ठी (सेठ) आदि गृहस्थ और नगरकी रक्षा પાણીઆરની તરફ દષ્ટિ ન નાખે, કારણ કે એ બધાં શંકાસ્થાને છે તેની તરફ જેવાથી લેકેને સાધુના ચરિત્રમાં સદેહ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી એ શંકાસ્થાને विशेष३२ परित्याग ४२वी. (१५) रनो. त्यादि, stra anभा All, मही, भासि आ રાજા. શ્રેણી (શેઠ) આદિ ગૃહસ્થ અને નગરની રક્ષા કરનારા કેટવાળી વગેરે સલાહ
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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