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श्रीदशवकालिकसूत्रे मूलम् उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहाणि यः।
राइभत्ते सिणाणे य, गंधमढे य वीयणे ॥२॥ छायाऔद्देशिकं क्रीतकृतं, नियागमभ्याहतानि च ।
रात्रिभकं स्नानं च, गन्ध-माल्ये च वीजनम् ॥ २॥ सान्वयार्थ:-(१) उद्देसियं आदेशिक-किसी एक साधुके लिए बनाया हुआ आहार (२) कीयगडं साधुके लिए खरीदा हुआ आहार (३) नियागं-- निमंत्रणसे ग्रहण किया हुआ आहार (४) अभिहडाणि-सामने लाकर दिया हुआ आहार (५) राइभत्ते रात्रिभोजन (६) सिणाणे स्नान य और (७) गंध-चन्दनादिलेप (८) मल्ले-पुष्पादिमाला (९) वीयणे-पंखा ॥२॥
टीका-औदेशिकम् उद्देशनमुदेशस्तत्र भवं तत्मयोजनमस्येति वा औंदेशिकं. साध्वादिकमुद्दिश्य निष्पादितमित्यर्थः (१),
क्रीतकृतं क्रीतेन-क्रयणेन कृतं सम्पादितं साधुकृते मूल्येन गृहीतमिति यावत् (२), ___ (१) औद्देशिक, (२) क्रीतकृत, (३) नियाग, (४) अभ्याहृत, (५) रात्रिभोजन, (६) स्नान, (७) गन्ध, (८) माल्य, (९) पंखा चलाना।
(१) साधु आदिके लिए जो आहार बनाया जाता है उसे औद्देशिक कहते हैं।
(२) साधुके लिए मूल्य देकर जो आहारादि खरीद किया गया हो उसे क्रीतकृत कहते हैं।
(१) मोशिश, (२) जातकृत, (३) नियास, (४) मस्याहत, (५) शनिसान, (६) नान, (७) ५, (८) माध्य, (6) ५ो यायो.
(૧) સાધુ આદિને માટે જે આહાર બનાવવામાં આવ્યું હોય તેને मोदेशि से छ.
(૨) સાધુને માટે મૂલ્ય ખર્ચીને જે આહારાદિ ખરીદ કરવામાં આવેલ खाय तेnaga 38 छ. .