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________________ महोत्सवः ल्पसूत्रे किया, वन्दना नमस्कार करके अपने अपराध को खमाया ॥२३॥ शक्रेन्द्रक्रत तीर्थकरशब्दार्थे । मूलम्-तए णं सव्वे इंदा हरिसवसविसप्पमाणहियया सव्विढिए जावा जन्म७६॥ । महया रवेणं अच्चुइंदाइक्कमेण भगवं तित्थयरं तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचिंसु। ___तए णं सक्किंदेण अणुवममहावीरवाचं चियत्तणेणं कंपियमेरु ‘भीमभयभेरवं उरालं अचेलयाइयं परिसहं सहिस्सइ' त्तिकटु य भगवओ गिव्वाणगणसमक्खं अंत्थधाम सिरीमहावीरेति नाम कयं ॥२४॥ भावार्थ-तत्पश्चात् हर्ष से विकसित चित्तवाले होकर सव इन्द्रोंने पूरे ठाठ के साथ यावत् महान् घोष करते हुए, अच्युतेन्द्र आदि के क्रम से भगवान् तीर्थंकर का ! अभिषेक किया। . तत्पश्चात् शकेन्द्र ने, अनुपम महावीरता से युक्त होने के कारण, मेरु पर्वत को ॥७६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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