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________________ भगवत्प रिवार कल्पसूत्रे । अटारससहस्सब्भहियाणं तिसयसहस्ससमणोवासियाणं उक्ट्रिा समणोवासियसंपया] सशब्दार्थे सुलसा रेवती आदि तीन लाख अठार हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट श्राविका संपदा थी वनम ॥७३८॥ [अजिणागं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईण जिंनस्सेव अवितहं वागरमाणाणं] जिन नहीं परन्तु जिन के समान सर्वाक्षर सन्निपाती और जिन की भांति ही सत्यप्ररूपणा करने वाले [तिसयाणं चउद्दसपुवीणं उकिट्ठा चउद्दस पुव्विसंपया] चौदह पूर्वधरकों की ऊत्कृष्ट तीनसौ चउदह पूर्वधरों की सम्पदा थी। [अइसयपत्ताणं तेरस सयाणं ओहिनाणीणं उकिट्ठा ओहिनाणिसंपया] अतिशयको प्राप्त तेरहसौ अवधि ज्ञानियों की उत्कृष्ट अवधिज्ञानी संपदा थी [उप्पन्न वरणाणदंसणधराणं सत्तसयाणं केवलनाणीणं उकिला केवलनाणिसंपया] सातसौ उत्पन्नवर ज्ञानदर्शनको धारण करने वाले केवलियों की उत्कृष्ट केवली संपदा थी [अदेवाणं देविडिपत्ताणं सत्तसयाणं वेउठवीणं उकिवा वेउब्वियसंपदा] देव न होने पर भी देव ऋद्धि। ॥७३०
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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