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________________ कल्पसूत्रे रखने योग्य [तं जहा] जैसे-[उग्गिहे] ऊनका [उदिए] ऊंट की जटा का [साणए] सनका भगवच्छ सनाव सशब्दार्थे [पञ्चापिच्चयए] डाभ का [मुंजापिच्चए] मुंज का बना हुआ रजोहरण कल्पता है ॥३६॥ दि कथा ॥६६२॥ भावार्थ--साधुओं को अथवा साध्वीओं को पांच प्रकार के वस्त्र धारण करने में योग्य पहनने को कल्पता है-वे इस प्रकार हैं-उनके वस्त्र १ पाट (रेशम) का बना हुवा वस्त्र२, शनका बना हुवा वस्त्र३, सूतका कपडा ४, वृक्षविशेष की छाल का बना हुवा कपडा ५ इसी प्रकार के रजोहरण धारण करने योग्य एवं व्यवहार में रखने योग्य हैं, जो इस प्रकार हैं-ऊनका १, ऊंट की जटा का २, सन का ३, डाभ का.४, और मुंजका ५, बना हुआ रजोहरण कल्पता है ॥३६॥ - मूलम्-दोण्हं पुरिमपंच्छिमअरिहंताणं सलिंगे वा भंडोवगरणोवही मणियमेणं एग सेयं वण्णओ प० ॥३७॥ ॥६६२
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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