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________________ - कल्पसूत्रे सशब्दार्थे प्रव्रजनादि विधि निरूपणम् वाउ जीवरक्खणढाए किं सुहुम वाउकायजीव रक्खणट्ठाए वा बायरवाउकायजीव रक्खणट्ठाए ? गोयमा! णो णं सुहुमवाउकायजीवरक्खणद्वाए बायरवाउ जीव रक्खणदाए तेणं छक्काय जीव रक्खणं भवइ एवं ते सव्वे वि अरिहंता पवुच्चंति ॥२३॥ शब्दार्थ-[भंते] हे भगवन् ! [पव्वावणायरिए] प्रव्राजनाचार्य [सोभणंसि] शुभ [तिहि करण-दिवस नक्खत्त-मुहत्त] तिथि करण दिवस नक्षत्र मुहूर्त [जोगंसि] और योग में [पव्वावणायरिए] प्रव्राजनाचार्य [पवावेइ] प्रव्रज्या अर्थात् दीक्षा देते हैं। [गोयमा] हे गौतम ! [पव्वज्जाए पुण] दीक्षा की [विहिं] विधि [उपदंसेमि] कहता हूं [समणाउसो] हे आयुष्मंत श्रमणोऽ[पव्वज्जाए] दीक्षाके [समएणं] समय [जीवो] जीव दीक्षा लेनेवाला [पढमं] प्रथम [ति खुत्तो सद्धिं] तिक्खुत्तो के पाठ के साथ [सव्वे] सर्व [निग्गंथे] निग्रंथोंको [वंदेइ] वंदना और [नमंसेइ] नमस्कार करे [तओ पच्छा] - ६१८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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